Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
हैं । किन्तु स्थानांग' की टीका में अभयदेवने अनुत्तरोपपादका वही अर्थ किया है जो दिगम्बर ग्रन्थोंमें किया गया है ।
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उपलब्ध आठवें अंगमें तीन वर्ग है और उनमें क्रमसे १०+१३+ १० = ३३ अध्ययन हैं । किन्तु स्थानांग में अनुतरोपपातिकदशा में दस अध्ययन बतलाये हैं और उनके नाम इस प्रकार हैं — ईसिदास, धरण, सुणक्खत्त, कातिन ( तिय ), सट्ठाण, सालिभद्द, आणंद, तेतली, दसन्नभद और अतिमुत्त । इनमें से शुरूके छै नाम तत्त्वार्थवार्तिकसे मिलते हैं । श्रभयदेव' ने लिखा है कि इनमें से कुछ नाम तीसरे वर्ग के अध्ययनोंके साथ मेल खाते हैं, सब नहीं। इसके सिवाय समवायांग और नन्दिमें आठवें और नौवें अंग की जो विषय सूचियाँ दी हैं वे प्रस्तुत आठवें नौवें अंगों से मेल नहीं खातीं । अतः डा० वेबर का कहना था कि 'समवाय और नन्दिके रचयिता के सामने मौजूदा दोनों आगमोंको प्रतियोंसे सर्वथा भिन्न ही प्रतियां होनी चाहियें। अतः हमें उक्त दोनों अंगोंकी जो प्रतियां प्राप्त हैं वे परिवर्तित तथा अत्यन्त खण्डित दशा में हैं ( इं० ए०, जि० २०, पृ० २१-२२ ) ।
प्रो० विंटरनिट्स ने आठवें और नौवें अंगके विषय में लिखा है कि- 'इन दोनों अङ्गोंकी रचना एक ही आधार पर की गई है,
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१ – 'उत्तरः प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरः, उपपतनमुपपात जन्म इत्यर्थः । ग्रनुत्तरश्वासाच्पपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां ते ऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्ध्यादिविमानपञ्चको पपातिन इत्यर्थः ।
- स्था० टी०, सू० ७५४ ।
२– 'इह च त्रयो वर्गास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः कैश्चित् सह साम्यमस्ति न सर्वे ।' स्था० टी० सू० ७५४ ।
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