Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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ज० सा० ई० पू०-पीठिका भगवान महाबीर स्वामीको श्वेताम्बर साहित्यमें ज्ञातृवंशी और दिगम्बर साहित्य में नाथवंशी लिखा है। इस अन्तर का कारण प्राकृत रूपोंमें अन्तर होजाना प्रतीत होता है। रणाय धम्म कहा और णाहधम्मकथा के आदि में भी जो णाय या णाह शब्द है वह महाबीर भगवान से ही सम्बद्ध जान पड़ता है। अतः भगवान महाबीरके द्वारा उपदिष्ट कथा जिसमें हों वह णायधम्मकहा है। टीकाकार १ अभय देव और मलयगिरीने णाया का अर्थ ज्ञाता किया है । और ज्ञाता का अर्थ उदाहरण किया है । ज्ञाता धर्मकथा अर्थात् उदाहरण प्रधान धर्मकथा। यह अर्थ विशेष संगत प्रतीत नहीं होता।
वेबरने 'णायाधम्म कहा'२ का अर्थ किया है-'नाय' अर्थात् ज्ञातृवंशी महाबीरके धर्म के लिये कथाएँ जिसमें हों,
उपलब्ध ‘णाया धम्म कथा' नामक अंग में दो श्रुतस्कन्ध हैं। पहलेमें १६ अध्ययन हैं जिन्हें 'ज्ञात' कहा है, दूसरे में १० वर्गधर्मकथा हैं । ग्रन्थ का प्रारम्भ-'तेणं कालेणं तेणं समएण' आदि प्रचलित परिपाटीके अनुसार होता है। ग्रन्थके प्रारम्भमें यह भी लिखा है-पाँचवाँ अग समाप्त हुआ, छठे अंग का क्या विषय है ?
इस अंग की प्रारम्भिक उत्थानिका आदिका जो रूप है वही रूप अंग ७ से ११ तक के अंगों में भी है। इसपरसे डा. वेबर का कहना था कि ये छहों अङ्ग एक ग्रूप में सम्बद्ध हैं तथा
१-'ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधानधर्भकथा ज्ञाताधर्मकथा'। सम० टी०, सू० १४१ । नं० टी०, सू. ५१ ।
२-Stories for the Dharma of NA YA इं० एं०, जि० १६, पृ० ६६ ।
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