Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
६६३ ऋद्धिविशेष, परिषद्, विस्तार पूर्वक धर्म श्रवण, बोधिलाभ सम्यक्त्व विशुद्धि, मूल गुण, उत्तर गुण, अनेक अतिचार, प्रतिमा, उपसर्ग, प्रत्याख्यान, प्रोषधोपवास, सल्ले खना, स्वर्गगमन, चयन, मनुष्य जन्म धारण, संयम धारण, मोक्ष प्राप्ति आदि का कथन करता है ( सम०, सू ० १४२)
श्वेताम्बर साहित्य में सातवें अंगका नाम उवासग दसा (उपा. सक दशा) है। उपलब्ध अंगमें दस अध्ययन हैं। इन अध्ययनोंमें दस उपासकोंकी कथाएँ हैं जिन्होंने प्रथम स्वर्ग प्राप्त किया और फिर मोक्ष प्राप्त किया। दस कथा इस प्रकार हैं-१ वाणिय ग्राम में आनन्द । २ चम्पामें कामदेव, ३ वाराणसीमें चुलणी पिता, ४ वाराणसीमें सुरादेव, ५ श्रालभियामें चुल्ल शतक, ६ कम्पिल्ल. पुर में कुण्ड कोलिक, ७ पोलासपुरमें सद्दाल पुत्र, ८ राजगृह में महाशतक, ९ श्रावस्तीमें नन्दिनी पिता और १० श्रावस्तीमें लेतिया पिता। सारी कथाएँ बिल्कुल एक साँचे में ढली हुई हैं। अन्त की कथाओंमें तो पूर्वकी कथाओंसे केवल नाम मात्रका अन्तर है।
८ अन्तःकृदश-जिन्होंने संसार का अन्त किया उन्हें अन्तःकृत कहते हैं । नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल, पालम्बु, अष्ट पुत्र ये दस वर्धमान तीर्थङ्कर के तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए । इसी प्रकार ऋषभ देव
आदि तीर्थङ्करों के तीर्थ में अन्य दस दस अनगार दारुण उप. सर्गों को जीतकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत केवली हुए। दस अन्तकृत केवलियों का वर्णन्द अन्तःकृदश अंग करता है। अथवा, अन्तःकृतकी दशा का जिसमें कथन हो उसको अन्तः कृद्दशा कहते हैं । उसमें अर्हन्त आचार्य और सिद्धों की विधि का
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