Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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६६२ जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका १५ नंदिफल. -नन्दि नामक वृक्ष का फल १६ अवरकंका० -धातकी खण्ड के भारत क्षेत्र की राज
धानी । इसमें द्रौपदी की कथा है १७ आइएण. (आकीर्ण)-समुद्रमें रहनेवाले अश्व की कथा १८ सुसुमा० -सुसुमा नामक सेठ पुत्री की कथा १६ पुंडरीय० (पुण्डरीक)
इस तरह प्रत्येक अध्याय में एक एक स्वतंत्र कथा है । अधि. कांश कथाओं में कथापर बल न देकर कथा से सम्बद्ध उदाहरण पर ही विशेष जोर दिया गया है। कुछ कथाएँ तो केवल उदाहरण रूप ही हैं । शायद इसी से टीकाकारों ने ज्ञात का अर्थ उदाहरण किया है। - दूसरा श्रुतस्कन्ध विषय और शैलीकी दृष्टि से प्रथमसे सर्वथा भिन्न है, तथा सातवें और नौवें अंग से विशेष रूप से सम्बद्ध है । नन्दि तथा समवयांगमें कहा है कि एक एक धर्मकथा में पाँच सौ पाँच सौ आख्यायिकाएँ और एक-एक आख्यायिका में पाँच सौ पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ, इसी तरह एक एक उपाख्यायिका में पाँच सौ आख्यायिका और पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ होती हैं, इस तरह ज्ञाता धर्मकथा में साढ़े तीन करोड़ कथाएँ होती हैं। इस कथन के प्रकाश में उपलब्ध ज्ञाता धर्मकथा को देखने से निराशा ही होती है।
इस अंग पर अभय देव कृत टीका है।
७ उपासकाध्ययन-श्रावक धर्म का लक्षण कहता है ( त० वा०, पृ० ७३ ) । ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रत धारण करनेकी विधि तथा उनके आचरणका वर्णन करता है। (षट्खं०, पृ० १०२।क० पा०, भा १, पृ. १२६ ) । उपासकों की
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