Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
६६४
जै सा० इ०-पूर्व पीठिका कथन होता है । (त० वा०, पृ०७३ । षटख०, पु० १, पृ. १.३)। प्रत्येक तीर्थङ्कर के तीर्थ में चार प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रतिहार्योंको प्राप्त कर निर्वाणको प्राप्त हुए सुदर्शन आदि दस दस साधुओंका वर्णन करता है ( क. पा. भा० १, पृ. १३०)। अन्तःकृतोंके नगर, उद्यान, चैत्य, वन खण्ड, समवसरण, राजा, माता पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह लौकिक, पार लौकिक ऋद्धिविशेष, भोग त्याग, प्रव्रज्या, परित्याग श्रुतपरिग्रहण, तप, उपधान, संल्लेखना, भक्त प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, अन्तःक्रिया आदि का कथन करता है (नं०, सू० ५३ । सम• सू० १४३)। ___टीकाकार' अभयदेवके अनुसार अन्तकृत अर्थात् तीर्थङ्कर, जिन्होंने कर्म और कमोंके फल रूप संसार का अन्त कर दिया उनको दशा । प्रथम वर्गमें दस अध्ययन होनेसे उसे अन्तकृत दशा कहते हैं । इस तरह दिगम्बर साहित्यमें अन्तःकृद्दश का जो अर्थ मिलता है वह श्वेताम्बर साहित्य में नहीं मिलता।
उपलब्ध 'अन्त गड दसाओ' नामक आठवे अङ्गमें आठ वर्ग और आठ वर्गों में क्रमसे १०+८+१३+१०+१०+१६+ १३ १०६० अध्ययन हैं। किन्तु स्थानांग और समवायांगमें प्रस्तुत अङ्ग में दस अध्ययन बतलाये हैं । इसके सिवाय समवायांगमें सात वर्ग और १० उद्देशनकाल भी बतलाये हैं। नन्दिमें आठ वर्ग ही बतलाये हैं, अध्ययनों का निर्देश नहीं किया है । स्थानांगमें
१-'अन्तो विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृतास्ते च तीर्थङ्करादयस्तेषां दशा:-प्रथम वर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः ।'-सम० टी०. सू० १४३ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org