Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका 'तथा चोक्तमाचाराङ्गे सुदं में अाउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादं इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपुरिसा जादा हवंति । तं जहासव्वसमण्णागदे णोसव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिया हत्थपाणीपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिउ एव परिहि एव अण्णत्थ एगेण पडिले. हेगेण इति ।'
इसमें बतलाया है कि पूर्ण श्रामण्यके धारीको, जिसके हाथ पर सक्षम होते हैं और सब इन्द्रियां समग्र होती है-उसे प्रतिलेखन के सिवाय एक भी वस्त्र धारण नहीं करना चाहिये ।' यह उद्धरण वर्तमान आचारांगमें नहीं मिलता। जबकि अन्य उद्धरण उसमें मिलते हैं। - इसी तरह उत्तराध्ययनसे भी कुछ पद्य उद्ध त किये गये हैं जिनमेंसे कुछ वर्तमान उत्तराध्ययनमें नहीं मिलते। दो पद्य नीचे लिखे हैं
परिचत्तेसु वत्थेसु रए पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी वावि अचेलगों।
अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए ॥ इनमें बतलाया है कि वस्त्रको त्यागकर पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। और जिन रूपधारी भिक्षुको सदा अचेल रहना चाहिए। वस्त्रधारी सुखी होता है और वस्त्रत्यागी दुःखी होता है, अतः मैं सचेल रहूंगा, ऐसा भिक्खुको नहीं सोचना चाहिए। ____अपराजित सूरिने कल्प सूत्रसे भी अनेक पद्य उद्ध त किये हैं, जो मुद्रित कल्पसूत्रमें नहीं मिलते । श्री श्रात्मानन्द जैन सभा
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