Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
६३१ परिमित और अपरिमित काल रूप प्रत्याख्यान का कथन करता है ( क. पा, पृ. १४३) । समस्त प्रत्याख्यान का कथन करता है ( नन्दि० चू०, मलय० सू० ५६ । सम. अभः सू० १४७)। इसमें तीस वस्तु, छ सौ पाहुड़ और चौरासी लाख पद होते हैं।
१० विद्यानुप्रवाद- समस्त विद्याओं का, आठ महा निमित्तों का, तद्विषयक रज राशिविधि, क्षेत्र श्रेणी लोकप्रतिष्ठा, लोक का आकार और समुद्धातका कथन करता है। (त० वा०, पृ० ७६) अगुष्ठ प्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी
आदि पाँच सौ महाविद्याओं का, और अन्तरीक्ष भौम अंग स्वर स्वप्न लक्षण व्यंजन, चिन्ह इन आठ महानिमित्तों का कथन करता है (षट्खं० पृ० १२१) । उक्त विद्याओं का तथा उन विद्याओं को साधने की विधि का और सिद्ध हुई विद्याओं के फल का कथन करता है (क० पा०, पृ० १४४ ) । अनेक विद्यातिशयों का कथन करता है ( नन्दी० चू०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ. सू० १४७ ) । इसमें १५ वस्तु, तीन सौ पाहुड़ और एक करोड़ दस लाख पद होते हैं। ___ ११ कल्याण प्रवाद-सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र और तारा गणों के गमन, उत्पत्ति, गतिका विपरीत फल, शकुन शास्त्र, तथा अर्हन्त बलदेव वासुदेव चक्रवर्ती आदि के गर्भावतरण आदि महा कल्याणकों का कथन करता है (त० वा०, पृ० ७७ । षट्ख० पृ० १२५ । क० पा०, पृ० १४५) । उसमें सब ज्ञान तप और संयम के योगों को शुभ फलदायी होने से सफल तथा प्रमाद आदि को अशुभ फलदायी कहा है ( नन्दी० चू०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ० स० १४७ ) । इसमें दस वस्तु, दो सौ पाहुड़ और छब्बोस करोड़ पद होते हैं।
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