Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
६३६ छन्दको वेतालीय नाम मिला है। और इसलिये वे' इस ग्रन्थको बहुत प्राचीन बतलाते हैं। एक उल्लेखनीय बात और भी इसमें है। माहण ( ब्राह्मण ) शब्द का प्रयोग मुनिके अर्थमें किया गया है। मा-हन-हिंसा न करनेवाला । डा० वेबर इसे भी प्राचीनता का सूचक बतलाते हैं। इस अध्ययनमें हित-अहितका उपदेश दिया गया है। उदाहरण के लिये-एक पद्यमें कहा है-'जो पुरुष कषायोंसे युक्त है वह चाहे नंगा और कृश होकर विचरे, चाहे एक मासके पश्चात् भोजन करे, परन्तु अनन्तकाल तक उसे जन्मधारण करना पड़ता है।'
अध्ययनका अंतिम वाक्य इस प्रकार है‘एवंसे उदाहु अणुत्तरनाणी अगुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दसणधरे अरहा नाययुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ॥२२॥ त्ति बेमि।' __ सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामीसे कहते हैं-'उत्तम ज्ञानी, उत्तम दर्शनी, सर्वोत्कृष्ट ज्ञान दर्शनके धारक अर्हन्त नातपुत्त भगवान ने विशाला नगरीमें कहा था, सो मैं आपसे कहता हूँ।'
टीकाकार शीलांक ने प्रारम्भमें इस अध्ययनका सम्बन्ध भगवान आदिनाथसे जोड़ा है। अर्थात् भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्रोंको लक्ष्य करके ऐसा कहा और इसी लिये अन्तिम उक्त वाक्यका अर्थ करते हुए उसकी संगति भी भगवान ऋषभदेव
१-इन्डि० एण्टि०, जि० १७, पृ० ३४४-३४५ ।
२-'जइवि य णिगणे किसे चरे, जयविय भुंजिय मास यंतसो। जे इह मायाइ मिजई श्रागंता गब्भाय [तसो ।।६।।'
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