Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय निर्वाह करे और सब दुःखोंको सहन करे । ऐसा करनेसे वह संसार समुद्रसे पार हो जाता है।
८-विरिय (वीर्य)-प्रमाद करना बाल वीर्य है और प्रमाद न करना पंडित वीर्य है । बाल वीर्य जीवोंको अनन्तकाल तक कष्ट देता है। अतः साधु कषायोंको जीते, पापोंका त्याग करे, पापका अनुमोदन न करे और परीषह उपसर्गोंको सहे। ____E-धम्मो ( धर्म -इसमें परिग्रहकी बुराई बतलाई है और लिखा है कि धन पुत्र ज्ञाति आदिका मोह छोड़कर धर्मका पालन करना चाहिये ।
१०-समाहि ( समाधि -इसमें बतलाया है कि साधु घरसे निकलकर प्रव्रज्या धारण करके निराकांक्ष हो जाय, निदानका छेदन करके शरीरसे ममत्व त्याग दे और न जीवनकी इच्छा करे और न मरण की।
११-मग्गो ( मार्ग)-छै कायके प्राणियोंकी हिंसा न करना मोक्षका मार्ग है। साधु सावध कर्मकी अनुमति न दे । एक' पद्यमें कहा है-'जो बुद्ध भूतकालमें हो चुके और जो भविष्यकालमें होंगे उनका आधार शान्ति है।' टीकाकार ने बुद्धका अर्थ तीर्थङ्कर किया है।
१२-समोसरण-इसमें क्रियावादी अज्ञानवादी और वैनयिकवादियोंके मतोंके दोष दिखलाकर स्वमतका दर्शन कराया गया है । अन्तमें कहा है-'साधु मनोहर शब्द और रूपमें आसक्त न हो, अमनोज्ञ गंध और रससे द्वेष न करे तथा जीने और मरनेकी
१-जे य वुद्धा अतिक्कता जे य बुद्धा अणागया । संति तेसिं पइट्ठाणं भूयाणं जगती जहा ॥३६॥
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