Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
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३ स्थानांग — इसमें अनेक जगह पाये जाने वाले अर्थों का निर्णय किया जाता है ( त. वा. पृ. ७३ ) । एक को आदि लेकर कोत्तर क्रमसे स्थानों का वर्णन करता है ( षट्खं, पु. १, पृ., - १०० । क. पा. भा. १, पृ. १२३ ) । इसमें जीव, अजीव, स्वसमय, पर समय लोक, लोक लोकालोक आदि को व्यवस्थित किया जाता है (नन्दी. सू. ४८, समय. सू. १३८ ) । इसमें दिगम्बरोंके अनुसार बयालीस हजार और श्वेताम्बरोंके अनुसार बहात्तर हजार पद हैं ।
वर्तमान स्थानांग सूत्र में दस अध्ययन हैं। उनमें एकसे लेकर दस संख्या तक अर्थों का कथन है । तदनुसार ही पहले अध्ययन का नाम एक स्थानिक, दूसरेका द्विस्थानिक, तीसरेका त्रिस्थानिक इत्यादि क्रमसे है । शुरूके पांच अध्ययनोंमें उद्देशविभाग है, शेष में नहीं है ।
इस अंग में कुछ उल्लेखनीय बाते हैं उनका यहां निर्देश करना अनुचित न होगा ।
१ वस्त्र धारण करनेके तीन कारण बतलाये हैं - लज्जा, जुगुप्सा और परीषह । इन तीन कारणोंसे साधु को वस्त्रधारण करना चाहिये ।
२ भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को छोड़कर शेष बाईस तीर्थङ्कर चतुर्याम धर्म का उपदेश करते
१ 'तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तं. - हिरिपत्तियं दुगंछापत्तिर्यं परीसहपत्तियं ॥ १७१ ॥ '
२ -- भरहेरवसु णं वासेसु पुरिम-पच्छिभवज्जा मज्झिमगा वावी सं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पराणवैति तं सञ्चातो पाणातिवाया वेरमणं, एवं मुसावायाश्रो वेरमणं, सव्वातो दिन्नादारणाश्रो
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