Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै०
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हैं- समस्त प्राणातिपातका त्याग, असत्यका त्याग, श्रदत्तादान का त्याग और समस्त परिग्रह का त्याग | सब महाविदेहों में भगवान अहन्त चतुर्यामधर्मका उपदेश करते हैं।
० सा० इ० पू० पीठिका
३ पांच' कारणोंसे अचेलपना ( वस्त्रत्याग ) प्रशस्त हैंदेखभाल कम करनी पड़ती है १, प्रशस्त लाघत्र रहता है २, विश्वसनीय रूप है, जिनानुमत तप है ४, और महान् इन्द्रिय निग्रह होता हैं ।'
इसकी टीकामें टीकाकार अभयदेव सूरिने लिखा हैजिसके वस्त्र नहीं होते उसे अचेल कहते हैं । वह जिनकल्पी विशेष होता है । और स्थविरकल्पी अल्प मूल्य वाले वस्त्रधारण करने से अथवा अल्प वस्त्रधारण करनेसे अथवा परिमित जीण मलिन वस्त्रधारण करनेसे अचेल कहलाता है | आगमिक साहित्य के सभी टीकाकारों ने वस्त्र पात्र का खूब पोषण किया
है, अस्तु ।
वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादागा ( परिग्गहा ) श्री वेरमणं । सव्वेसु महाविदेहेतु अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पराणवयंति ( सू. २६६ ) ।
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१ - पंचहि ठाणेहि, अचेल पसत्थे भवति, तं. - अप्पा पडिहा, लाघव पत्ये, रूवे वेसासिते, तवे अन्नातें, विउले इंदियनिग्गहे, ( सू. ४५५ ) ।
२--' न विद्यते चेलानि - वासांसि यस्यासावचेलकः, स च जिनकल्पिक विशेषः --- स्थविर कल्पिक श्चाल्पाल्पमूल्यसप्रमाण जीर्णमलिनवसनत्वादिति । ' - स्था०, सू० ४५७ ।
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