Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०-पीठिका इच्छा न करता हुआ संयमसे गुप्त और मायासे रहित होकर रहे।
१३-अहतहं ( यथातथं )-इसमें सम्यक् चारित्रका वर्णन करते हुए पार्श्वस्थ आदि मुनियोंका स्वरूप बतलाया है।
१४-गंथ (प्रन्थ )-आचार्यकी आज्ञा पालन करता हुआ साधु विनय सीखे, सदा गुरुकुलमें निवास करे, मंत्र विद्याका प्रयोग न करे, आदि कथन है। __ १५-जमईयं ( यमतीतं )-तीर्थङ्करका उपदेश ही सत्य है, वैर न करना साधुका धर्म है. स्त्री सेवन न करनेवाला पुरुष सबसे पहले मोक्षगामी होता है, आदि कथन है ।
१६-गाहा (गाथा )-इसमें माहन, श्रमण, भिक्षु और निग्रन्थ शब्दोंकी व्याख्या है ।
दूसरे श्रुतस्कन्धमें सात अध्ययन हैं। शुरुके चार अध्ययन गद्यमें हैं।
१ पुंडरिए (पुण्डरिका)—इसमें सरोवरके बीच में स्थित कमलसे मोक्षकी तुलना की है तथा बतलाया है कि क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी उस कमल यानी मोक्षको लेनेका संकल्प करते हैं किन्तु कामभोग रूपी कोचड़में फंसे रह जाते हैं।
इस अध्ययनका प्रारम्भ 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं'-'आयुष्मन ! मैंने सुना उन भगवान ने ऐसा कहा था' वाक्यसे होता है। इसके द्वितीय भागको छठे अंगके अध्ययन २-४ में भी दोहराया है।
२ किरिया ठाणं ( क्रिया स्थान )-इसमें बारह सांपराय क्रियाओंको त्यागकर 'ईर्या पथ'को अंगीकार करनेका उपदेश है ।
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