Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के साथ बैठनेकी कोशिश की है। किन्तु उक्त वाक्यसे स्पष्ट है कि भगवान महवीरको लक्ष्य करके ही उक्त वाक्य दिया गया है ।
३-उवसग्ग परिन्ना ( उपसर्ग परिज्ञा)-इसमें चार उद्देश हैं। उपसर्गोंसे बचनेका उपदेश है ।
४-इत्थी परिन्ना ( स्त्री परिज्ञा )-इसमें दो उद्देश हैं। इसमें बतलाया है कि स्त्रियोंके उपसर्गसे भ्रष्ट हुए साधु दुःख भोगते हैं। अतः स्त्रियोंकी ओर आकृष्ट नहीं होना चाहिए ।
५-नरय विभत्तो ( नरक विभक्ति)-दो उद्देश हैं । इसमें नरकके दुःखोंका वर्णन है । प्रारम्भिक' पद्यमें सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामीसे कहते है-'मैंने केवल ज्ञानी महर्षि महावोरसे पूछा था नरकमें कैसा दुःख है ? आप जानते हैं। मुझको कहिये कि जीव किस तरह नरकको प्राप्त होते हैं।'
६-वीरत्थवो ( वीरस्तव ;-इसमें वीर प्रभुकी स्तुति है । प्रारम्भिक पद्यों में कहा गया है-श्रमण, ब्राह्मण गृहस्थ और अन्य तीर्थियोंने पूछा-'एकान्त रूपसे कल्याणकारी धर्मका उपदेश देनेवाला वह कौन है ? उस ज्ञानपुत्रके ज्ञान दर्शन शील कैसे थे । आप यह सब जानते हैं सो हमें कहिये ।'
८-कुसील परिभासिय ( कुशील परिभाषा)-इसमें बतलाया है कि अग्नि आदिका आरम्भ करने वाला हिंसक है । नमक खाना छोड़ देनेसे, प्रभात काल में स्नान करनेसे और अग्नि होमसे मोक्ष नहीं मिलता । अतः साधु अनुद्दिष्ट भोजनसे अपना
१-'पुच्छिस्स ऽहं केवलियं महेसि कहं मिक्ता वा णरगा पुरत्था । अजाणत्रो में मुणि बूहि जाणं कहिं नु बाला नरयं उविंति ।।१।।'
२-'पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य अगारिणो या पर तित्थित्रा य । से केइ णेगंतहियं धम्ममाहु अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१।।'
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