Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
६३४
जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
एकादशांग बारहवें दृष्टिवादके सम्बन्धमें यथा संभव प्रकाश डालने के पश्चात् अब हम शेष ग्यारह अंगोंकी ओर आते हैं।
पूर्वो से अंगों को उत्पत्ति यह पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर साहित्यमें कहा है कि पूवोंसे अंगोंकी उत्पत्ति हुई। व्यवहार' सूत्र में लिखा है कि पहले प्राचार प्रकल्प नौवें प्रत्याख्यान पूर्व में गर्भित था। वहींसे आचारांगमें उसे लाकर रखा गया । दिगम्बराचार्य पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थवृत्तिमें (अ० ६; सू० ४) पुलाक मुनिका जघन्य श्रुत 'आचार वस्तु' कहा है और उत्कृष्ट श्रुत अभिन्नाक्षर दस पूर्व कहा है। यह हम देख आये हैं कि वस्तु नामक अधिकार पूर्वोमें ही होते थे। अतः 'आचार वस्तु' अवश्य ही किसी पूर्वगत होना चाहिये। संभव है नौवें पूर्वगत ही हो; क्योंकि उसका प्रतिपाद्य विषय आचार ही था। यद्यपि इससे यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि अंगोंकी रचना पूर्वोसे हुई थी और न दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई संकेत ही मिलता है तथापि पूर्वविद का महत्त्व ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, केवल। 'अंगविद्' का कोई महत्त्व दृष्टिगोचर नहीं होता। यही इससे प्रकट होता है। ___ तथा अंगोंमें प्रतिपादित कोई विषय ऐसा प्रतीत नहीं होता, जो पूर्वोमें वर्णित न हो। इससे भी श्वेताम्बरीय साहित्यके उक्त
१-अायारपकप्पो ऊ नवमे पुव्वंमि अासि सोधी य । तत्तो चिय निजूढो इहाहि तो किं न सुद्धिभवे ॥१७१।। -व्य० सू०, ३उ० ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org