Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०पीठिका है 'गणिपिडग' । 'दुवालसंग गणिपिडगं' निर्देश उपांगोंमें प्रायः मिलता है। गणी गणधरको कहते हैं और 'पिडग' कहते हैं पिटारेको। अत: 'गणि पिडग'का अर्थ है-गणधरका पिटारा या पेटी। ___ बौद्ध पालिनिकायको त्रिपिटक' कहते हैं। त्रिपिटक शब्द प्राचीन है। प्रथम शताब्दीके शिलालेखोंमें 'तेपिटक' शब्दका प्रयोग है। पिटकका अर्थ है 'पिटारा'। तीन पिटक होनेसे त्रिपिटक कहे जाते हैं। जैन अङ्गोंके लिए 'गणिपिटक' शब्दका प्रयोग उसीकी अनुकृति प्रतीत होता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय पर बौद्धोंका प्रभाव पड़ा, यह हम पहले बतला आये हैं। बौद्धोंकी तरह ही श्वेताम्बरोंमें भी तीन वाचनाएं हुईं। और बौद्ध त्रिपिटकोंके पुस्तकारूढ़ होनेके १०० वर्ष पश्चात् वलभीमें श्वेताम्बर आगम पुस्तकारूढ़ किये गये। इन सबको यदि अनुकृति न भी माना जाये तो भी पिटक शब्द तो अवश्यही उनकी अनुकृति प्रतीत होता है। दिगम्बरपरम्परामें इस नामका संकेत तक भी नहीं मिलता। __इन सब नामोंमें सबसे प्राचीन नाम अङ्ग ही प्रतीत होता है क्योंकि खारवेलके शिलालेख की १६वीं पंक्तिमें 'मुरियकालवोचिनं च चोयट्री अंग सतिकं तुरीयं का उल्लेख है जो मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए अङ्गका सूचक है ।
१-'इच्चेइयंमि दुवालसंगे गणिपिडगे'--नन्दि०, पृ० २४६ । 'कई विहे णं भंते गणिपिडए णं पणत्त ? गोयमा! दुवालसंगे गणिपिडए पणत्त ।' -भग० २५ श° ३ उ० ।
२ बौ०ध००, पू० २७ । ३-ज०वि००रि०सो०, जि० पृ० २३६ ।
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