Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका में बाद को बारहवाँ अंग मिलाया गया है । वास्तव में तो बारहवाँ अंग बहुत पहले नष्ट हो चुका था। केवल इस स्थिति से हम यह अनुमान कर सकते हैं कि दृष्टिवाद तथा शेष ज्यारह अंगों के मध्य में एक प्रकार का विरोध तथा एक सुनिश्चित असम्बद्धता थी। उसी के कारण दृष्टिवाद को लुप्त होना पड़ा। अपने इस कथन के समर्थन में हमारे सन्मुख आज भी प्रमाण हैं।'
दृष्टिवाद और शेष ग्यारह अगों के मध्य में स्थित विरोध और असम्बद्धता का प्रदर्शन करने से पहले हम उक्त दो प्रकार के वाक्यों के सम्बन्ध में थोड़ा सा प्रकाश डाल देना उचित समझते हैं।
आव नि० में (गा० ६३ में ) उक्त वाक्यमें श्रुतज्ञान को सामायिक से लेकर विन्दुसार पर्यन्त बतलाया है। श्रुतज्ञानमें सम्पूर्ण श्रुत का समावेश होता है । श्रुत के दो भेद हैं- एक अंग पविट्ठ और दूसरा अणंग पविट्ठ या अग बाह्य । इन दोनों में अग पविठ्ठ' को ही द्वादशांग श्रुत ज्ञान कहते हैं। वह गणधरों के द्वारा ग्रथित होता है उसके अविकल ज्ञाता श्रुत केवली कहलाते हैं। दूसरा भेद अणंग पविट्ठ या अंग बाह्य-अपने २-तं जहा-अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च । से किं तं अंगबाहिरं ?
अंग बाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-श्रावस्सयं च श्रावस्सयवइरित्तं च । से किं तं श्रावस्सयं ? श्रावस्सयं छब्बिहं पण्णातं । तं जहां-सामाइयं चउवीसत्यत्रो, वंदणयं, पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं, सेत्त श्रावस्सयं....'-नन्दी, स. ४४ । 'श्रुतं मति पूर्व द्वयनेक द्वादश भेदम् ॥ २० ॥ तत्वा' सू० अ० १। 'सुतावास गमादी चोद्दस पुव्वीण तह जिणाणं च ॥१८५ ॥'-व्य० सू०, ६ उ० ।
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