Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
श्रुतपरिचय
६१५ वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है । वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होनेपर वस्तु समास श्रु तज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर की वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून पूर्व श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तु समास श्रुतज्ञान होता है । उसके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर पूर्व श्रुत ज्ञान होता है। पूर्व श्रुतज्ञानके जितने अधिकार हैं उनमेंसे प्रत्येक की वस्तु संज्ञा है। और पूर्वगतके जो चौदह भेद हैं उनमेंसे प्रत्येककी पूर्वसंज्ञा है। __ प्रथम पूर्व श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होने पर पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए अंग प्रविष्ट और अंग बाह्यरूप सकल श्रुतज्ञानके सब अक्षरोंकी वृद्धि होने तक पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है।
श्रुतज्ञानके बीम भेदोंका उक्त विवेचन वीरसेन स्वामीने षटखण्डागमके वर्गणा खण्डकी धवला टीकामें (पृ० २६१-०७) किया है। उसीके आधार पर संकलित गोमट्टसार जीवकाण्डके ज्ञान मार्गणा अधिकार में भी उनका विवेचन मिलता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके आगमिक साहित्यमें पूर्वमें दर्शित चौदह भेदोंका ही निरूपण पाया जाता है। इन बीस भेदोंका वहाँ संकेत तक भी नहीं मिलता। हाँ, कर्मविपाक नामक प्रथम कर्म प्रन्थमें एक गाथाके द्वारा उक्त बीस भेद अवश्य गिनाये हैं और उसके रचयिता देवेन्द्र सूरिने स्वोपज्ञ टीकामें उनका संक्षिप्त स्वरूप भी दिया है और लिखा है कि विस्तृत स्वरूप जाननेके
१.---'एवमेते संक्षेपतः श्रुतज्ञानस्य विंशति भेदाः दर्शिताः, विस्तारार्थिना तु वृहत्कर्मप्रकृतिरन्वेषणीया' ।—स. च. क. पृ. १६ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org