Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय गमिक और कालिक श्रुत एकादशांग को अगमिक कहा है। जिसमें सदृश पाठ हों उसे गामिक और जिसमें असदृश पाठ हों उसे अगमिक कहा है । किन्तु भाष्यकार भी उसे स्पष्ट नहीं कर सके तो बेचारे टीकाकार कहाँ से करते।।
श्वेताम्बर परम्परा की आवश्यक नियुक्ति में भी श्रु तज्ञान की प्रकृतियाँ विस्तार से कहने की प्रतिज्ञा करके कहा है कि लोक में जितने प्रत्येक अक्षर और अक्षर संयोग हैं उतनी ही श्रु तज्ञान क' प्रकृतियाँ जाननी चाहिये । फिर आगे लिखा है कि श्र तज्ञान को सर्व प्रकृतियोंका कथन करने की शक्ति मुझमें नहीं है इस जिये श्रुतज्ञान के चौदह भेदों का कथन करते हैं । इन चौदह भेदों का स्वरूप पहले लिख पाये हैं। ___ इस तरह जर आवश्यक नियुक्तिकार ने ही अक्षर और अक्षर संयोग प्रमाण श्रुतज्ञान के भेद बतला कर भी उनका प्रतिपादन करने में अपनी असमर्थता प्रकट की तब बिशेषावश्यक भाष्यकार भी उनका वर्णन कहाँ से करते । अतः जैसे श्वेताम्बर परम्परा में 'पद' का प्रमाण अज्ञात था वैसे ही अक्षर संख्या का प्रमाण भी अज्ञात था। इसी से उसमें उक्त बातों के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। किन्तु दिगम्बर परम्परा में द्वितीय अग्रायणी पूर्ण से निसृत षटखण्डागम के सूत्रों से उक्त विषयों की जानकारी मिलती है तथा वीरसेन स्वामी की धवला टीका से उसपर अच्छा प्रकाश भी पड़ता है । तथापि इस सम्बन्ध में
१-'सुयणाणे पयडीअो वित्थरतो प्रावि वोच्छामि ॥१६॥ पत्तेयमक्खराई अक्खर संजोग जत्तिया लोए । एवइया सुयनाणे पयडीयो होति नायव्वा॥१७॥ कत्तो में वण्णेउं सची सुयनाण सव्वपयडीयो । चोद्दस विहनिक्खेवं सुयनाणे श्रावि वोच्छामि॥१८।'-श्रा नि ।
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