Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच बतलाया है । और अंग बाहय के अक्षरों' का प्रमाण आठ करोड़, एक लाख, आठ हजार एक सौ पिचहत्तर बतलाया है और इसका कारण बतलाते हुए उपपत्ति भी दी है।
श्रुतके अक्षर षट्खण्डागम के वर्गणा खण्ड में प्रथम यह प्रश्न किया है कि श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ ( उत्तर भेद) हैं ? आगे उसका समाधान किया गया है कि श्रुतज्ञानावरण कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ हैं क्योंकि जितने अक्षर हैं उतने ही श्रुतज्ञान हैं-एक एक अक्षर से एक एक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। ___ अक्षरों का प्रमाण इस प्रकार है-तेतीस व्यंजन हैं । अइ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ये नौ स्वर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं। प्राकृत में ए ऐ ओ औ का भी ह्रस्व भेद चलता है। अं अः, - क प ये चार अयोगवाह होते हैं। इस तरह सब अक्षर चौसठ होते हैं। इन चौसठ अक्षरों के संयोग से जितने अक्षर निष्पन्न होते हैं वे भी उन चौसठ अक्षरों के ही प्रकार हैं, उनसे बाहर नहीं हैं । उनका प्रमाण लाने के
१- अड कोडि ए लक्खा अट्ठ सहस्सा य एयसदिगं च । पगणचरि वण्णाश्रो पइण्णयाणं पमाणं तु ॥ ॥-गो० जी। २-'सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाश्रो पयडीअो' ।।४३।।-षटर्ख०, पु० १३, पृ० २४७ । ३ - 'सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जात्रो पयडीयो ॥४४॥ 'जावदियाणि अक्खराणि अक्खर संजोगा वा । ४५॥' षटखं० पु० १३, पृ० २४७ । ४-'संजोगावरणटुं चउसहिं थावए दुवे रासिं। अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिदिसं गणिदं ॥४६॥"षट्खं०, पु० १३, पृ० २४८ ।
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