Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सुनय और दुर्नयों का तथा छै द्रव्य, नौ पदार्थ और पांच अस्तिकायोंका वर्णन करता है ( क. पाः, भा. १, पृ. १४०)। अग्र अर्थात् द्वादशांगमें प्रधानभूत वस्तुके 'अयन' अर्थात् ज्ञान को अग्रायण कहते हैं । वही जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणीय कहते हैं। वह सातसौ सुनय दुर्नयों का तथा पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थो का वर्णन करता है । अग्र अर्थात् परिमाण, उसका 'अयन' अर्थात् जानना, उसके लिये जो हितकर हो वह अग्रायणीय पूर्व है ( नन्दी० मलय० सू० ५६ ) ।
इसपूर्वमें १४ वस्तु २८० प्राभत और छियानवें लाख पद होते हैं। . ३ वीर्यानुप्रवाद-छद्मस्थ केवलियोंके वीर्यका, सुरेन्द्र और दैत्यपतियों की ऋद्धियों का, नरेन्द्र, चक्रवर्ती और बलदेवोंके वीर्यलाभ करने का तथा द्रव्योंके सम्यक लक्षणका कथन करता है ( त. वा०, पृ. ७४)। वीर्यानुषवाद पूर्व आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीय, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य और तपवीर्य आदि का वर्णन करता है (क. पाः, भा० १, पृ. १४०, षटखं; पु. १, पृ. ११५)। जिसमें अजीवों का तथा सकर्मा और निष्कर्मा जीवोंका वीर्य कहा गया हो वह वीर्यप्रवाद है ( नन्दी० मलयटीका, सू. १४७) इसमें आठ वस्तु, १६० पाहुड और सत्तर लाख पद हैं।
४ अस्तिनास्तिप्रवाद-पांच अस्तिकायोंका और नयोंका अनेक पर्यायोंके द्वारा यह है और यह नहीं हैं इत्यादि रूपसे कथन करता है । अथवा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की गौगता और मुख्यताके द्वारा छहों द्रव्योंके स्वरूपकी अपेक्षा अस्तित्वका और पररूपकी अपेक्षा नास्तित्वका कथन करता है ( त० वा०, पृ. ७५ ) । स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा
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