Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
जै० सा० इ० पू०-पीठिका लिए वृहत्कर्म प्रकृतिका अन्वेषण करना चाहिये। देवेन्द्र सूरिकी टीकामें एक बात और भी उल्लेखनीय है। उन्होंने पदका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-'जिससे अर्थका बोध हो उसको पद कहते हैं । पदके सम्बन्धमें इस प्रकारके कथन मिलते हैं तथापि जिस किसी पदसे प्राचार आदि ग्रन्थोंका प्रमाण अट्ठारह हजार
आदि कहे जाते हैं, वही यहां लेना चाहिये। द्वादशांग श्रुतके परिमाणमें उसीका अधिकार है। और यहां श्रुतके भेद प्रस्तुत हैं । उस प्रकारकी आम्नायका अभाव होनेसे उस पदका प्रमाण ज्ञात नहीं है।' ___इससे प्रकट है कि पदका जो प्रमाण दिगम्बर परम्परामें मिलता है, और जो ऊपर बतलाया है उसकी आम्नाय श्वेताम्बर परम्परामें लुप्त हो गई थी। उक्त बीस भेदोंके सम्बन्धमें भी शायद ऐसी ही बात हो। दिगम्बर परम्परामें भी श्रुतज्ञानके उक्त बीस भेद केवल षट्खण्डागमके सूत्रमें ही मिलते हैं। और वह भी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके भेदोंके विवेचनके प्रसंग से। ___ यह हम लिख आये हैं कि अग्रायणी पूर्वके चयनलब्धि नामक पञ्चम वस्तु अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ प्राभृतसे षट्खण्डागमका उद्गम हुआ है। उधर श्वेताम्बर पर
१ - 'पदं तु 'अर्थपरिसमाप्तिःपदम्'इत्याद्युक्तिसद्भावेऽपि येन केन चित्पदेनाऽष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा अाचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते, तस्यैव द्वादशाङ्गश्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वात् , श्रुतभेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् । तस्य च पदस्य तथाविधाम्नायाभावात् प्रमाणं न ज्ञायते ।'–स. च. क. पृ. १६ । 'इह यत्रार्थोंपलब्धिस्तत्पदमित्यादि पदलक्षणसद्भावेऽपि तथाविधसम्प्रदायाभावात्तस्य प्रामाण्यं न समवगम्यते ।' प्र. सारो.द्वा०६२।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org