Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
श्रु तपरिचय का कोई नियम नहीं है क्योकि अनियत अक्षरों से अर्थ का ज्ञान होता हुआ देखा जाता है । आठ अक्षरों का प्रमाण पद होता है
और सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अट्ठासी अक्षरों का मध्यमपद होता है। मध्यम पद के द्वारा पूर्व और अंगों का पद विभाग होता है।
द्वादशांग के पदों की संख्या एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख, अठ्ठावन हजार, पाँच बतलाई है। इन पदों में संयोगी अक्षर हो समान हैं, संयोगी अक्षरों के अवयव अक्षर नहीं, क्योंकि उनकी संख्या का कोई नियम नही है।
इस मध्यम पद श्रुत ज्ञान के उपर एक अक्षर के बढ़ने पर पद समास श्रुत ज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षर की वृद्धि होते होते एक अक्षर से न्यून संघात श्रुत ज्ञान के प्राप्त होने तक पद समास श्रु तज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर संघात नाम का श्रुतज्ञान होता है । यह संघात श्रु तज्ञान मार्गणा ज्ञान का अवयवभूत है। जैसे गति मार्गणा में नरक गति विषयक ज्ञान संघात श्रुत ज्ञान है।
संघात श्रुत ज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर संघात समास श्रु त ज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षर वृद्धि के क्रम से बढ़ते हुए एक अक्षर से न्यून प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान पर्यन्त संघात समास श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान होता है। प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्रतिपत्ति समास श्रुत ज्ञान होता है, इस प्रकार एक एक अक्षर वृद्धि होते होते एक अक्षर से न्यून अनुयोग द्वार श्रुत ज्ञान पर्यन्त प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोग द्वार
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org