Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
श्रुतज्ञान के बीस भेद षट्खगडागम' के वर्गणा नामक खण्ड में श्रुतज्ञानके बीस भेद बतलाये हैं-पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पदसमास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्ति समास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृत प्रामृत, प्राभृतप्राभृत समास, प्राभृत, प्राभूत समास, वस्तु, वस्तु समास और पूर्व, पूर्व समास ।
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है। यह ज्ञान नष्ट नहीं होता इसलिये इसे अक्षर कहते हैं। अथवा केवल ज्ञान अक्षर है क्योंकि उसमें हानि वृद्धि नहीं होती। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चूँकि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव का ज्ञान भी वही है, इसलिये भी उस ज्ञान को अक्षर कहते हैं । यह ज्ञान केवल ज्ञान का अनन्तवां भाग है। तथा केवलज्ञान की तरह ही निरावरण है, क्योंकि आगमका कथन है कि अक्षरका अनन्तवां भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है । इसके आवृत होने पर जीवके अभाव का प्रसंग आता है।
इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देनेपर जो
१-'पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई। पाहडपाइड-वत्थू-पुव्व समासा य बोद्ध व्वा॥१॥-षट्खं० पु० १३, पृ० २६०॥ श्वेताम्बरीय प्रथम नवीन कर्म ग्रन्थ में भी श्रुतज्ञान के ये २० भेद दिये हैं यथा-पज्जय अक्खर पय-संघाया पडिवत्ति तह य अणु योगो । पाहड पाहुड पाहुड वत्थू पुव्वा य ससमासा ॥ ७ ॥ किन्तु अन्यत्र सर्वत्र ज्ञान की चर्चा में श्वेताम्बर परम्परा में पूर्वोक्त चौदह भेद ही पाये जाते हैं।
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