Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
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कलंक देव के पश्चात् हुए श्री वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला' और जयधवला २ टीकाओं के प्रारम्भ में दृष्टिवाद के उक्त भेदों का तथा उनमें वर्णित विषयों का प्रतिपादन करने के साथ ही साथ उन सब के परिमाण का भी कथन किया है ।
कलंक देव ने तो केवल चौदह पूर्वों के ही विषय का निर्देश किया है । किन्तु वीरसेन स्वामीने दृष्टवादके अन्य चार भेदों में भी वर्णित विषयका निर्देश किया है ।
दृष्टिवाद के सम्बन्ध में यह जानकारी तो उत्तर कालीन टीकाकारों से प्राप्त होती हैं। प्राचीन मूल ग्रन्थकारों से जो जानकारी प्राप्त होती है वह इस प्रकार है
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दिगम्बर परम्परा के दो महान सिद्धान्त ग्रन्थ कुछ वर्षों से ही प्रकाश में आये हैं । उनमें से एक का नाम है कसाय पाहुड और दूसरे का नाम है ' छक्खण्डागम' । दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों का निकास पूर्वों से हुआ था । ये उनके देखने से स्पष्ट होता है । कसाय पाहुड की प्रथम रे गाथा में बताया है कि 'ज्ञान प्रवाद नामक पाँचवे पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में पेज्ज प्राभृत है । उससे प्रकृत कसाय पाहुड की उत्पत्ति हुई है । टीकाकार वीरसेन स्वामी ने लिखा हैं कि अंग और पूर्वो का एकदेश आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ, और ज्ञान
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१०६ - १२२ तथा पु. ६, पृ. २०३ - २२४ । १३२ - १४८ ।
१ - षट्ख., पु. १, पृ. २ – क. पा., भा. १, पृ. ३ – 'पुव्वभि पंचमम्भि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए । पेज' ति पाहुडम्भि दु हवदि कसायाण पाहुडं गाम ॥ | १ | '
- क. पा., भा. १,
पृ. १० । ४ - क. पा., भा. १, पृ. ८७ ।
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