Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका दो विरोधी दृष्टियोंका भी वर्णन था। सम्भवतया इसके द्वारा 'दृष्टिवाद' नामकी व्याख्याकी जा सकती है। दृष्टिवादका तीसरा भेद चौदह पूर्व थे । सम्भवतया पूर्वोका विषय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सर्वथा अनुकूल नहीं था और धीरे-धीरे श्वेताम्बर सम्प्रदाय कट्टर पन्थका रूप लेता जाता था । दृष्टिवादके लोप हो जानेका सम्भवतया यही कारण था।'
श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार यशोभद्रके स्वर्गारोहणके पश्चात् उनके ज्येष्ठ शिष्य संभूतिविजय पट्टासीन हुए और संभूत विजय के पश्चात् उनके शिष्य स्थूलभद्र पट्टासीन हुए। संभूतिविजयके गुरुभाई श्रुत केवलि भद्रबाहु थे और यद्यपि वे बहुत बड़े विद्वान तथा प्रभावशाली महापुरुष थे और स्थूलभद्रने उनके चरणोंकी सेवा करके ही पूर्वोका ज्ञान प्राप्त किया था, तथापि उन्हें वह पद नहीं दिया गया जो उत्तरकालमें स्थूलभद्रको दिया गया। इससे डा० बेबरकी उक्त धारणा उचित ही प्रतीत होती है और यह भी ठीक है कि दृष्टिवादमें विभिन्न दृष्टियोंका विवेचन था, इसीसे उसे दृष्टिवाद कहते थे । अतः उसमें आजीविक सम्प्रदायका वर्णन हो सकता है क्योंकि आजीविक सम्प्रदायका संस्थापक गोशालक न केवल भगवान महावीरका समकालीन था, किन्तु श्वेताम्बरीय आगमोंके अनुसार भगवानका शिष्य भी रह चुका था। किन्तु त्रैराशिक दृष्टिकी उत्पत्ति तो वीर निर्वाणसे ५४४वें वर्षमें बतलाई है। अतः दृष्टिवादमें उसका वर्णन होना सम्भव नहीं है। इससे दृष्टिवादकी जो विषयसूची नन्दी वगैरहमें दी गई है वह अभ्रान्त प्रतीत नहीं होती। और इसलिए उसपरसे किसी निर्दोष परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता।
२-"पंच सया चौयाला तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्ठी उप्पन्ना ॥२४५१॥"-वि० भा० ॥
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