Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रतपरिचय
कालिक श्रुत और दृष्टिवाद में अन्तर
आवश्यक' नियुक्ति में नयोंका विवेचन करते हुए कहा है कि दृष्टिवाद में नयोंके द्वारा वस्तुओंका कथन किया जाता है किन्तु कालिक श्रुतमें नयों के द्वारा वस्तुका व्याख्यान करनेका नियम नहीं है । यदि श्रोताओं की अपेक्षासे कालिक श्रुतमें नय द्वारा विचार करना ही हो तो नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीन नयोंके द्वारा ही करना चाहिए; क्योंकि लोक व्यवहारके लिए ये तीन नय ही उपयोगी हैं।
नियुक्तिकी टीका में टीकाकार मलय गिरिने यह शङ्का की है कि यदि कालिक श्रुतमें नयोंका अधिकार ही नहीं है तो श्रोताकी अपेक्षा तीन नयोंका अधिकार किस लिए बताया। इसके उत्तर में कहा गया है कि तीन नयोंके द्वारा कालिक श्रतमें अभ्यस्त होने पर ही दृष्टिवादके योग्य होता है इस लिए कालिक श्रुतमें श्रोताकी अपेक्षा तीन नयोंका ही अधिकार है । आगे आ० नि०में लिखा है कि 'कालिक श्रुत मूढ़नय वाला है, उसमें नयोंका अवतार नहीं होता। जब तक उसमें अनुयोगोंका भेद नहीं हुआ था तब तक उसमें नयोंका अवतार होता था और जबसे कालिक श्रुतमें अनुयोगोंका भेद हो गया तबसे नयोंका समवतार भी बन्द हो गया। आगे उसमें इसका स्पष्टी करण करते हुए लिखा है, -
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१ - 'एएहि दिट्टिवाए परूवणा सुत्त ग्रन्थ कहणा य । इद पुण भुवगभो हिगारो तीहिं श्रसन्नं ॥ ७६०|– - प्रा० नि०, भा० २ । २ - 'मूढनइ सुत्रं कालियं तु न नया समोरंति इह । पुहुति समारो नत्थ पुहत्ते समारो || ७६२ ||
३ - जावं ति जवइरा पुहत्तं कालियागस्स । तेणारेण पुत्तं कालिय दिवाए य || ७६३ || - ग्रा० नि० ।
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