Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
५८६
जै० सा० इ० पू०-पीठिका गण्डिका, अवसर्पिणी गण्डिका, चित्रान्तर गण्डिका, इत्यादि गण्डिकाओका जिसमें कथन हो उसे गण्डिकानुयोग कहते हैं। ___आदिके चार पूर्वोकी चूलिका होती है शेषपूर्व विना चूलिकाके हैं । यह चूलिका भेद है। दृष्टिवादमें संख्यात वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेष्टक, संख्यात श्लोक, संख्यात प्रतिपत्ति, संख्यात नियुक्ति, संख्यात संग्रहणी, होती हैं। इस तरह बारहवें अंगमें एक श्रुतस्कन्ध, चौदह पूर्व, संख्यात वस्तु, संख्यात चूलवस्तु, संख्यात पाहुड,संख्यात पाहुड़ पाहुड़, संख्यात पाहुडिया, असंख्यात पाहुड़ पाहुडिआ, संख्यात हजार पद, संख्यात अक्षर, अनंत गम, अनन्त पर्याय संख्यात त्रस, अनन्त स्थावर, आदि भाव' होते हैं।
टीकाकार मलय गिरिने इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि ये सब प्रायः नष्ट होगया तथापि आगत सम्प्रदायके अनुसार किञ्चित् व्याख्यान किया जाता है। अतः इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए उन्होने साधारण सा शब्दार्थमात्र किया है,
और कचित् कचित् थोड़ा सा विशेष व्याख्यान भी कर दिया है। ___ उक्त सूत्रसे दृष्टिवादके भेदोंका, अवान्तर अधिकारोंका और स्थूल विषयसूचीका आभास मिल जाता है। और उस परसे इतना ही प्रतीत होता है कि नन्दी सूत्रकी रचनाके समय दृष्टिवादका परम्परागत विषय परिचय आदि प्राप्त था, किन्तु दृष्टिवादके अस्तित्वका समर्थन तो उस परसे नहीं होता।
किन्तु यह स्पष्ट है कि ग्यारह अंगोंकी अपेक्षा दृष्टिवाद बहुत विशाल था। श्वेताम्बरोंके अनुसार तो एकादशांगका सब विषय उसमें आगया था, इतना ही नहीं, बल्कि कोई कोई अङ्ग दृष्टिवाद
१--नन्दी०, सू० ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org