Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका साम वेद के राणायनीय चरण की एक शाखा का नाम सत्यमुनि था। इनके विषय में अपिशली शिक्षा के षष्ठ प्रकाश में लिखा है कि सात्यमुनि शाखावाले सन्ध्यक्षरों को ह्रस्व पढ़ते हैं । अर्ध एकार और अर्ध श्रोकार के उच्चारण को सात्यमुनि और राणायनीय चरणों की परिषत् ने अपने प्रातिशाख्यों में स्वीकार किया था । (पा० भा०, पृ. ३२० । वै० वा० इ०, भा० १, २१३) । इन्हीं सात्यमुनि का उल्लेख अकलंक देव ने अज्ञानवादियों में किया प्रतीत होता है।
नारायण-नारायण' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। इसके स्थान में 'राणायन' होना चाहिये। लेखकों के प्रमाद या बुद्धि दोष के कारण राणायन का नारायण हो गया जान पड़ता है। सिद्धसेनगणि की टीका में 'राणायन' पाठ ही मुद्रित है। यह ऊपर लिखा है कि सामवेद की राणायनीय चरण की एक शाखा का नाम सात्यमुनि है। अतः सात्यमुनि के निकट में राणायनीय शाखा के संस्थापक राणायन का ही निर्देश उचित प्रतीत होता है। किन्तु एक शाखा चारायणीय भी थी। चर ऋषि का गोत्रापत्य चारायण है। पाणिनीय गण (४-१-६६) में चर का स्मरण किया गया है। चारायणयों का एक मंत्रार्षाध्याय भी मिलता है । ( वै० वा० इ०, भा० १,पृ० १९०)। अतः यह कहना शक्य नहीं है कि नारायण के स्थान में राणायन होना चाहिये या चारायण।
कठ-महा भारत' (शान्तिप्रर्व अ० ३४४ ) में राजा उपरिचर वसु के यज्ञ का वर्णन है, वहाँ १६ ऋत्वजों में से एक आद्य कठ भी थे। इससे प्रतीत होता है कि कठों में जो प्रधान कठ
१-'श्राद्यः कठस्तैत्तिरिश्च वैशम्यायन पूर्वजः ।। ६ ।।'
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