Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०-पीठिका
'जब तक महामति बज्र स्वामी थे तब तक कालिकानुयोग 'अपृथक था। उनके पश्चात् आर्यरक्षितके समयमें कालिक श्रुत
और दृष्टिवादमें अनुयोगोंका 'पृथक्त्व' हो गया।' इसका खुलासा इस प्रकार है__ जब तक वज्र स्वामी थे, तब तक प्रत्येक सूत्रका व्याख्यान करते हुए उसमें चारों अनुयोगोंका कथन किया जाता था। आर्य' रक्षितके समयमें एक सूत्रका व्याख्यान एक ही अनुयोगपरक किया जाने लगा और इस तरह समस्त श्रुत चार अनुयोगोंमें विभाजित कर दिया गया। इस विभागके कर्ता वज्रस्वामीके शिष्य आर्य रक्षित थे। वे अपने शिष्य दुर्बलिकापुष्य मित्रको पढ़ाते थे तो विद्वान होने पर भी शिष्य सूत्रार्थको स्मरण नहीं रख पाता था । अतः आयरक्षितने वर्तमानकालकी स्थितिको पहचान कर कालिकादि श्रुतको चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया । कालिक सूत्रमें प्रायः चरण-करणका ही प्रतिपादन किया गया है, इस लिये उसे चरणकरणानुयोगमें रखा गया। ऋषिमाषित उत्तराध्ययनोमें महर्षियोंकी धर्मकथाओंका ही कथन है इस लिए ऋषिभाषितोंको धर्मकथानुयोगमें रखा गया। सूर्य प्रज्ञप्ति-- में गणितका विधान होनेसे उसे गणितानियोगमें रखा गया।
और सम्पूर्ण दृष्टिवादको द्रव्यानुयोगमें रखा गया। इस तरहसे प्रत्येक सूत्रमें चारों अनुयोगोंका विधान निषिद्ध करके समस्त
१ देविन्दवंदिएहि महाणुभावेहिं रक्खिन अज्जेहिं । जुगमासज विहत्तो अणुअोगो ता को चउहा ॥७७४।। कालियसुअंच इसिभासि आई तइयो अ सूरपन्नति । सव्वो अदिहिवाश्रो चउत्थश्रो होइ अणुअोगो ॥ जं च महाकप्यसुत्रं जाणि अ सेसाणि छेत्र सुत्ताणि । चरणकरणाणुरोगत्ति कालिअत्थे उवगयाणि ||७७४।।'-प्रा० नि० ।
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