Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
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श्रुतको चार अनुयोग में विभाजित कर दिया गया। चूंकि महाकल्प श्रुत तथा अन्य छेदसूत्र भी कालिक श्रुतमें अन्तभूर्त थे, इस लिये उन्हें भी चरण करणानुयोगमें ही रखा गया ।
० नि० के अनुसार ऊपर जो कथन किया गया है उसमें कालिक श्रुत और दृष्टिवादकी दृष्टिसे उल्लेखनीय भेद यह है कि कालिक श्रुतका अनुयोगों में विभाजन होनेके पश्चात् उसमें नयों का समवतार निषिद्ध कर दिया गया और श्रोता विशेषकी अपेक्षा आवश्यक होने पर भी केवल आदिके तीन नयोंके ही अवतारकी अनुज्ञा दी गई। किन्तु समस्त दृष्टिवादका अनुयोगों में विभाजन हो जाने पर भो उसमें नयोंका समवतार निषिद्ध नहीं किया गया ।
यह हम पहले लिख आये हैं कि वज्रस्वामी अन्तिम दस पूर्वी थे और उनके शिष्य आर्यरक्षित साढ़े नौ पूर्वोके पाठी थे । अतः उस समय साढ़े नौ पूर्व वर्तमान थे। फिर भी दृष्टिवाद में नयोंका अवतार निषिद्ध न करनेके दो ही कारण हो सकते है प्रथम समस्त नोंसे सूत्रार्थका कथन किये बिना दृष्टिवादका हृदयंगम करना शायद सम्भव न हो, दूसरे जो दृष्टिवादको समझ सकने की सामर्थ्य रखता हो उसके लिये उसमें नयोंका समवतार दुरूह प्रतीत न होता हो ।
अस्तु, जो कुछ कारण हो, किन्तु उक्त बातोंसे इतना स्पष्ट है, कि कालिक श्रुत और दृष्टिवाद एक ही श्रेणीके नहीं थे ।
नन्दीसूत्र तथा अनुयोग द्वारमें कालिक श्रुत और दृष्टिवादअन्तर अधिकाका विवरण दिया है उससे भी यही प्रकट होता है कि इन दोनों में मौलिक भेद था ।
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