Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
५६६ महावीरके अनुयायी स्थविर अनगारोंके पास सामायिकको आदि लेकर ग्यारह अङ्गोंको पढ़ता था ।' यह घटना महावीरके समयकी है। यह हम पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार एकादशांगको सब कोई पढ़ सकते थे अतः उनका ज्ञान सबको रहता था, किन्तु दृष्टिवादका अध्ययन और ज्ञान सबके लिए सुलभ नहीं था। शायद इसीसे निरयावलीमें बिन्दुसार पर्यन्त का ग्रहण न करके एकादशांगका ही ग्रहण किया है। अतः दृष्टिवादको पीछेसे सम्मिलित किये जानेका जो अनुमान डा० बेबरने किया था, वह ठीक प्रतीत नहीं होता। जैन सिद्धान्त में भिन्न भिन्न दृष्टियोंसे भिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकारसे कथन करनेकी परम्परा है। उन दृष्टियोंको समझे बिना उनकी सङ्गति नहीं बैठाई जा सकती । अस्तु ।
इस प्रकार डा० वेबरने श्वेताम्बरीय साहित्यसे प्राप्त उल्लेखों के आधार पर दृष्टिवादका अस्तित्व प्रमाणित करनेकी चेष्टाकी थी। तब यह प्रश्न पदा होता है कि दृष्टिवाद यदि वर्तमान था तो उनका लोप क्यों किया गया ? इसके उत्तरमें डा० बेबरने लिखा है-'निश्चयपूर्वक हम कमसेकम यह निर्णय करने में समर्थ हैं कि बारहवें अङ्ग और शेष ग्यारह अङ्गोंके मध्यमें गम्भीर अन्तर था। हेम चन्द्र के परिशिष्ट पर्व तथा अन्य स्रोतोंसे यह स्पष्ट है कि दृष्टिवादके यथार्थ प्रतिनिधि भद्रबाहु थे और पाटली. पुत्रमें एकत्र जैनसंघसे उनका विरोध हो गया था । बारहवें अंगके उद्धरणोंमें सुरक्षित वर्णनोंसे इस विरोधके कारणोंकी जांच की जा सकती है। उनके अनुसार दृष्टिवादके पांच भेदोंमें से प्रथम दो भेदोंमें अन्य विषयोंके सिवाय आजीविक और त्रैराशिक नामक
१-६० एं०, जि० १७, पृ० ३३९.३४० ।
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