Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका दिगम्बर परम्परा के सिद्धान्त ग्रन्थों की टीका' धवला और जयधवला२ में श्रु तका वर्णन सामायिकसे लेकर विन्दुसार पर्यन्त ही क्रमसे किया गया है । अतः डा० वेवर ने आव० नि० की जिस गाथांश की उद्ध त किया है उसमें श्रुत ज्ञान को लेकर निर्देश किया गया है। तथा जहाँ द्वादश गणि पिडगका निर्देश है वहाँ आचारांगको आदि लेकर निर्देश है; क्योंकि बारह अगों में प्रथम अंग आचार और अन्तिम अग दृष्टिवाद ही सर्वत्र बतलाया है। अावश्यकनिमें जो सामायिकको आदि लेकर कथन किया है, सो वहाँ सामायिक आचारका स्थानापन्न नहीं है, जैसा कि डा० वेवर ने समझा है । किन्तु जैसे द्वादशांग में आचारकी मुख्यता होने से उसे प्रथम स्थान दिया गया है वैसे ही अङ्ग बाह्यमें सामायिक आदि षडावश्यकों की मुख्यता है और षडावश्यकों में भी सामायिक की मुख्यता है क्यों कि आचार धारण करते समय सर्व प्रथम सामायिक संयम ही धारण किया जाता है। ____ हां, निरयावलीमें सामायिक आदिसे लेकर भी एकादशांग पर्यन्त ही ग्रहण किया है, दृष्टिवादको छोड़ दिया है, किन्तु उसका कारण वह नहीं है जो डा० बेबरने समझा है। वहाँ दृष्टिवादको ग्रहण न करनेका कारण शास्त्रीय परम्परा है। उस वाक्यमें बतलाया है कि-'पद्म नामका अनगार (मुनि) भगवान
१-'अत्याहियारो दुविहो, अंगबाहिरो अंगपइट्ठो चेदि ।
तत्थ अगबाहिस्य चौद्दस अत्याहियारा तं जहा सामाइयं ।
-षटखं०, पु०, १, पृ०६६ । अंगमणंग मिदि बे अत्थाहियारा, सामाइयं...चोद्दसविहमणंगसुदं"-षटख०, पु० ६, पृ० १८८- । २-क० पा०, भा० १, पृ०६७।
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