Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय
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गत सूत्रों का अर्थ करते हैं । इस लिये उन्हें पूर्व कहते हैं । कल्प ' सूत्र में लिखा है कि 'पूर्व (प्रथम) रचे जानेके कारण, महा प्रमाण वाले होने के कारण तथा अनेक विद्या और मंत्रोंका भण्डार होनेके कारण पूर्वोका प्राधान्य है । इस तरह अखण्ड जैन परम्परा में दृष्टिवाद तथा पूर्वोका विशेष महत्त्व था ।
दृष्टिवादका लोप
दिगम्बर तथा श्व ेताम्बर परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु पर्यन्त द्वादशाङ्ग अविकल रूपसे सुरक्षित थे । मद्रवाहुके अवसानके साथ ही पूर्वोका लोप होना प्रारम्भ हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रुत केवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई चतुर्दशपूर्व ज्ञाता नहीं हुआ। भद्रवाहुके उत्तराधिकारी विशाखाचार्य केवल दसपूर्वी थे । अन्तके चार पूर्व श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथ ही लुप्त हो गये । यद्यपि श्व ेताम्बर परम्परा में भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात् स्थूलभद्रको भी छठा श्रुतकेवली माना है । इसके विषय में पहले लिख आये हैं । तथापि उनके साथ चार पूर्व विच्छिन्न हो गये ।
दिगम्बर साहित्य के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् गुरुशिष्यपरम्पराके क्रमसे १८३ वर्ष में ग्यारह आचार्य दस पूर्वी हुए । अर्थात् वे ग्यारह अंगों और दस पूर्वोके ज्ञाता थे तथा शेष चार पूर्वो के एक देश ज्ञाता थे । इनके बाद दो सौ
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१ –– 'द्वादशाङ्गित्वं' इत्येतेनैव चतुर्दशपूर्वित्वे लब्धे यत्पुनरेतदुपादानं तदङ्गेषु चतुर्दश पूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थं, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्वं प्रणयनात् अनेकविद्यामंत्राद्यर्थमयत्वात् महाप्रमाणत्वाच्च ।'
- कल्प. सुबो, पृ. १८५
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