Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पू०-पीठिका भी मानती है और अङ्गोंका उपांगोंके साथ घनिष्ट सम्बन्ध भी स्वीकार करती है। इस परसे डा० वेबर ने यह अनुमान किया था कि जिस समय वर्तमान बारह उपांगो की स्थापना की गई, अर्थात् ग्यारह अङ्गोको पुस्तकारूढ़ करते समय वी. नि. रू०६८० में बारहों अङ्गोका अस्तित्व था । फलतः दृष्टिवाद भी उस समय वर्तमान था अथवा वर्तमान माना जाता था। ___ डा० वेबरने लिखा है कि 'पूर्वोके लोपकी उक्त सूचनाके बावजूद भी समवायांग तथा नन्दिसूत्रमें हम दृष्टिवादकी विस्तृत विषयसूची पाते हैं। सम्भवतया समवायांगमें यह अंश पीछेसे जोड़ा गया है और नन्दिसूत्रसे ही लिया गया जान पड़ता है।' ____समवायांग और नन्दिसूत्रके सिवाय महानिशीथ, अनुयोग द्वार और आवश्यक नियुक्तिमें भी 'दुवालसंगं गणिपिडगं'का उल्ल ख प्रायः आया है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थोंके समयमें दृष्टिवाद वर्तमान था, तथा अखण्ड था; क्योंकि उसके खण्डित होनेका कोई निर्देश उनमें नहीं है। परम्पराके अनुसार वीर निर्वाणके १७० वें वर्षमें भद्रवाहु स्वर्गवासी हुए। किन्तु दो ग्रन्थोंमें, जिनमें 'दुवाल संगं गणि पिडगं" निर्देश मिलता है, ऐसे कालका उल्लेख है जो ४०० वर्ष पश्चात्का है, अतः डाक्टर वेबरका कहना है कि पाटलीपुत्र में अंगोंके संकलन आदि की समस्त परम्परा मुझे बौद्धोंके अशोक द्वारा बुलाई गई संगीति
आदिकी अनुकृति मात्र ही लगती है, और इसलिए उसकी विश्वसनीयताका दावा कोई मूल्य नहीं रखता।' इस विषयमें हम
1-'Where as in two of the tescts, which mention the DUVALSNGAMGANIPID AGAM'
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