Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय भूत हो, उसे विद्वान सूत्र कहते हैं।' यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो तीर्थङ्करके मुखसे निकले हुए अर्थपदोंमें ही संभव है, गणधरके मुखसे निकली हुई ग्रन्थ रचनामें नहीं, वह तो बड़ी विस्तृत और विशाल होती है।
इसका यह समाधान किया गया है कि गणधरके वचन भी सूत्रके समान ही होते हैं इसीलिए उन्हें भी सूत्र कहनेमें कोई विरोध नहीं आता।
षट् खण्डागमके कृति अनुयोग द्वारकी धवला टीकामें वीरसेन स्वामीने तीर्थङ्करके मुखसे निकले हुए बीज पदोंको तो सूत्र कहा है क्योंकि उनमें सूत्रका उक्त लक्षण घटित होता है और गणधर देवके श्रु तज्ञानको सूत्रसम कहा है क्योंकि वह उन बीज पदरूपी सूत्रोंसे उत्पन्न होता है। _ अङ्गों और पूर्वोको सिद्धान्त भी कहते हैं। जेकोबी, बेबर
आदि विदेशी लेखकोंने अपने लेखोंमें श्वेताम्बरीय आगमोंका निर्देश सिद्धान्त' शब्दसे ही किया है।
इस प्रकार अङ्गों और पूर्वोको आगम, परमागम, सूत्र, सिद्धान्त' आदि नामोंसे पुकारा गया है ।
श्वेताम्बर आगमों में एक नाम नया मिलता है और वह नाम
१ 'इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गय वोजपदं सुतं । तेण सुत्तण समं वादे उप्पजदित्ति गणहरदेवम्मि हिद सुदणाणं सुत्तसमं ।
-धवला. पु०६, पृ० २५६ । २--'तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य' ।
-सागार० टी० अ०७, श्लो० ५० ।
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