Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतपरिचय अर्थरूप । अर्थात् तीर्थङ्कर जो उपदेश देते हैं क्या गणधरोंके द्वारा प्रथित अंगोंमें वहो उपदेश अक्षरशः रहता है अथवा उस उपदेशमें प्रतिपादित अर्थको लेकर गणधर उसे भाषाका रूप देकर निबद्ध करते हैं ?
धवला' में कर्ताके दो भेद बतलाये हैं-अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता। भगवान महावीरने जो अर्थका कथन किया उसे इन्द्रभूति गौतम गणधरने तत्काल बारह अंगों और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों में रचा। अतः भावभु तके और अर्थ पदोंके कर्ता तो महावीर भगवान हुए और ग्रन्थरूप श्रु तके कर्ता गौतम गणधर हुए । इस तरह ग्रन्थ रचनाकी परम्परा प्रवर्तित हुई ।
विशेषावश्यक२ में लिखा है कि तीर्थङ्कररूपी कल्पवृक्षसे जो ज्ञानरूपी पुष्पोंकी दृष्टि होती है उन्हें लेकर गणधर मालामें गॅथ देते हैं। इस पर यह प्रश्न किया गया कि ऐसी स्थिति में तो तीर्थङ्करके कथनको ही श्रुत कहना चाहिए। गणधरके द्वारा रचित सूत्रोंमें उससे कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती ?
१ 'एवंविधो महावीरो अथकर्ता ।... "तदो भावसुदस्स अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता । तित्थयरादो सुदपज्जाएण गौतमो परिणदोत्ति दरसुदस्त गोदमो कत्ता । तत्तो गंथरयणा जादा ।'-धव०, पु०१,
पृ० ६४-६५ । २ 'तं नाण कुसुम बुद्धिं घेतुं वीयाइबुद्धो सव्व। गंथंति पवयगट्ठा माला इव चित्तकुसुमाणं ॥११११॥ विशे० भा०।
३ 'जिणभणिइ चिय सुत्तं गणहरकरणम्मि को विसेसो त्य ? ते तदविक्खं भासइ, न उ वित्थरो सुयं किंतु ॥१११८॥ विशे० भा० ।
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