Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
५२६ यह प्रश्न हो सकता है कि जब दिगम्बर सम्प्रदायमें श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् भी अंगज्ञानकी परम्परा ५०० वर्ष तक चालू रही तो श्वेताम्बरोंकी तरह दिगम्बरोंने उनके संकलनादिका प्रयत्न क्यों नहीं किया। इस प्रश्नके समाधानके लिये दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्पराके दृष्टिकोणमें जो मौलिक मतभेद हमें प्रतीत हुआ उसे हम नीचे देते हैं।
द्वादशांग के अथक में मतभेद दोनों परम्परायें भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग वाणीको आद्य जैन साहित्य मानती हैं। द्वादशाङ्गके नाम भी दोनों परम्पराओंमें एक ही हैं। किन्तु अन्तर यह है कि दिगम्बर परम्पराके अनुसार भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट वाणीको उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अंगोंमें गूंथा और अपने उत्तराधिकारी सुधर्मा गणधरको सौंप दिया। सुधर्माने जम्बू स्वामीको सौंप दिया। इस तरहसे दिगम्बर परम्पराकी गुर्वावलियों में आद्य स्थान गौतम गणधरको प्राप्त है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराकी गुर्वावलि गौतम गणधरसे शुरू न होकर सुधर्मासे शुरू होती है।
कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें लिखा है कि 'भगवान महा
१ ज० ध०, भा० १, पृ.८४ ।।
२ 'सव्वे विणं एते समणस्स भगवत्रो महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चउदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएण भत्तेण अपाण एण काल गया जाव सव्व. दुक्खप्पहीणा, थेरे इंदभूई थेरे अज्ज सुहम्मे य सिद्धिगए महावीरे
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