Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै०
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है । साधारणतया 'विद्वानोंकी ऐसी धारणा रही है कि जब भद्रबाहुके अनुयायी साधु दक्षिणसे लौटकर मगधमें आये तो उन्होंने पाटलीपुत्र परिषद में कोई भाग नहीं लिया और यह घोषणा कर दी कि मूल आगम एकदम नष्ट हो गये । किन्तु यह धारणा भ्रान्त है । किसी भी प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्य, पट्टावली या अभिलेख वगैरह में श्वेताम्बरीप अंग साहित्य के सम्बन्धमें या उनकी वाचनाओंके सम्बन्ध में कोई संकेत तक मेरे देखने में नहीं आया। जिन कथाओं में संघभेदकी चर्चा है. उनमें भी अग साहित्यकी संकलनाके विषयमें कुछ भी नहीं कहा गया है । अतः यदि यह कहा जाये कि दिगम्बर जैन परम्परा इस विषय में एकदम मूक है, तो अत्युक्ति न होगी । यद्यपि अपवाद रूपसे उन पर छींटाकसी करनेका संकेत मिलता है किन्तु वह संकेत भी इतना गम्भीर है, कि हर किसीकी दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंच सकती । अतः उक्त धारणा ठीक नहीं है।
० सा० इ० - पूर्व पीठिका
भगवान महावीरके पश्चात् अंगज्ञानकी परम्परा किस प्रकार गुरु शिष्य परम्पराके रूपमें प्रवर्तित होते-होते लुप्त हुई, इसका स्वतंत्र वर्णन तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला टीका तथा श्रुतावतार आदि में है । तदनुसार दिगम्बर परम्परा में वीर निर्वाणसे ६८३ वर्ष पर्यन्त अंगज्ञानकी परम्परा प्रवर्तित रही है किन्तु उसे संकलित करने या लिपिवद्धकरनेका कभी कोई सामूहिक प्रयत्न किया गया हो, ऐसा आभास नहीं मिलता ।
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१ कै० हि० इं०, जि० १, पृ० १४८, जै० नॉ० इ० पृ० २२१ । २ ‘मांसभक्षणाद्यभिघानं श्रुतावर्णवादः । '
- सर्वा ०, ० ६, सू० १३ |
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