Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया, वह पाटलीपुत्री वाचनामें संकलित किये गये ग्यारह अंग थे। उनमें अन्तिम सकल श्रुतज्ञानी भद्रवाहुका कोई योगदान नहीं था। अतः वे अनधिकारी श्रत. धरों के द्वारा संकलित होनेसे मान्य कैसे किये जा सकते थे । उन्हींके आधारसे श्वेताम्बर परम्परामें आगे चलकर वर्तमान
आगम संकलित किये गये। ___ हमें तो उक्त आशंकाओंके प्रकाशमें पाटलीपुत्र में हुई वाचनाकी बात केवल बौद्ध संगीतिका अनुकरण मात्र प्रतीत होती है; क्योंकि जैन संघ और बौद्ध संघकी व्यवस्थामें प्रारम्भसे ही मौलिक अन्तर रहा है। प्रथम बौद्ध संगीतिका वर्णन करते हुए आचार्य नरेन्द्रदेवने लिखा है___ "जहाँ पहले संघका अधिकार था, वहाँ अब प्रमुखका अधिकार हो गया। संघ त्रिरत्नोंमें से एक था। भिक्षु और उपासक संघमें शरण लेते थे, न कि किसी आचार्य या प्रमुख में । प्रमुखको संघके निर्णयोंको कार्यान्वित करना पड़ता था, वह अपने मन्तव्योंको संघ पर लाद नहीं सकता। अतः दीपवंशमें संघ स्वयं संगीतिके सदस्योंको चुनता है। किन्तु दीपवंश और चुल्लवग्गके अनुसार महाकाश्यपने ५०० अर्हतोंको प्रवचनका संग्रह करनेके लिये चुना । अशोकावदानमें भी प्रमुख प्राचार्यों का चुनाव संघ नहीं करता है....किन्तु एक आचार्यसे दूसरे आचार्यको अधिकार हस्तान्तरित होते हैं। पुराने समयमें संघका जो आधिपत्य था वह आता रहा और प्रमुखोंका अधिक.र कायम हो गया।"-बौ० ध० द. पृ० १२-१३।।
किन्तु जैन परम्परामें प्रारम्भसे ही प्रमुख आचार्यका चुनाव संघके द्वारा न होकर आचार्यसे ही दूसरे आचार्यको अधिकार
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