Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अविकल ज्ञान था। और यदि स्थूलभद्रने अपने गुरु सम्भूति विजयसे ग्यारह अङ्गोंका भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया था तो स्पष्ट ही वह पाटलीपुत्रमें संगृहीत किये गये ग्यारह अङ्गोंके ही पाठी थे-परम्परासे प्रवाहित एकादशांग वेत्ता नहीं थे।
स्थूलभद्रको लेकर इतना लिखनेकी आवश्यकता इसलिये हुई कि जैसे श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरकी शिष्य परम्पराका अभाव है वैसे ही श्रुतकेवली भद्रबाहुकी शिष्य परम्पराका भी अभाव है। सम्भूतिविजयके पश्चात् उनकी स्थविरावली स्थूलभद्रसे ही प्रचलित होती है ! ऋषिमण्डलसूत्रमें भद्रबाहुको स्तुति एक ही गाथाके द्वारा की गई है किन्तु उनके उत्तराधिकारी स्थूलभद्रकी स्तुति बीस गाथाओंके द्वारा की गई है। ___ भद्रबाहुकी स्तुतिमें उन्हें 'अपच्छिम सयलसुयनाणि' कहा है। जिसका सीधा अनुवाद 'अन्तिम श्रुतकेवली' होता है। किन्तु 'अपच्छिम'का अनुवाद 'पश्चिम-अन्तिम-नहीं ऐसा भी किया जा सकता है क्योंकि श्वेताम्बर परम्परामें स्थूलभद्रको' भी श्रुतकेवली माना है। अतः भद्रबाहुको उपान्त्य ( अन्तिमसे पहला ) श्रुतकेवली गिना जाता है। स्थूलभद्रने पूर्वोका ज्ञान श्रुतकेवली भद्रबाहुसे किस प्रकार प्राप्त किया था, इसका वर्णन हेमचन्द्रने परिशिष्ट पर्वके नवम सर्गमें किया है। उसका सार यह है कि
१. दसकप्पववहारा निज्जूढा जेण नवम पुवाअो । वंदामि भद्दबाहुं
तमपच्छिमसयलसुयनाणिं ॥" २. 'शय्यंभवो यशोभद्रः सम्भूतविजयस्ततः ॥ भद्रवाहुः स्थूल,
भद्राश्रतकेवलिनो हि षट् ।'-अभि. चि०, का० १, श्लोक० ३३-३४ ॥
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