Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कल्प'सूत्रमें लिखा है कि भगवान के गणधर तो ग्यारह थे, किन्तु गण नौ ही थे। इसका स्पष्टीकरण करते हुए उसमें लि वा है कि वाचना भेदसे गणभेद होता है। और एकही प्रकारकी वाचना लेनेवाले साधु समुदायको गण कहते हैं । अतः गणधरोंकी संख्या ग्यारह होते हुए भी गण नौ ही थे। अन्तिम चार गणधरों मेंसे दो दो गणधरोंकी एक ही वाचना थी। ज्येष्ठ गणधर इन्द्रभूति पांचसौ शिष्योंको वाचना देते थे, इसी तरह अग्निभूति, वायुभूति आर्य व्यक्त, आर्य सुधर्मा, पांचसो पांचसौ शिष्योंको वाचना देते थे। मण्डित पुत्र और मौर्य पुत्र साढ़े तीन सौ श्रमणोंको वाचना देते थे। इन सातोंकी वाचना पृथक पृथक थी। शेष चारमें से अकम्पित और अचलभ्राताकी एकही वाचना थी। ये दोनों छ सौ शिष्योंको वाचना देते थे। इसी तरह मेतार्य और प्रभासकी भी एक ही वाचना थी। ये दोनों भी छसौ शिष्योंको. वाचना देते थे। इस मान्यता और संभावनाके प्रकाशमें जब हम श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरकी शिष्य परम्पराका अभाव और सुधर्माकी शिष्य परम्पराका सद्भाव पाते हैं तो मनमें यह आशङ्का होना स्वाभाविक है कि शायद वाचना भेद और सामाचारी भेदके कारण ही तो गौतम गणधरको दिगम्बर परंपरामें और सुधर्माको श्वेताम्बर परम्परामें अग्रस्थान नहीं मिला है ?
किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें कोई आगमवाक्य ऐसा नहीं
१ 'तेण कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवश्री महावीरस्स नवगणा इक्कारस गण हरा हुत्था ।'
-कल्प०, ८ व्या०। २ 'श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरके द्वारा अंगोंके रचे जानेका कोई निर्देश नहीं है । सुध के द्वारा ही रचे जाने का निर्देश है-गुरु जै० सा० इ०, पृ० २२।
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