Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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५०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका टिप्पणीमें भद्रेश्वरके उक्त कथनके समर्थनमें शीलाङ्ककी टीकासे कुछ उद्धरण दिये हैं। किन्तु मुनिजीने भद्रेश्वरके इस कथनको भी देवर्द्धिगणिके समयमें हुए कार्यके साथ जोड़ दिया है । यथा--'जहां जहां नागार्जुनी वाचनाका मतभेद और पाठभेद था वह टीकामें लिख दिया गया' ।।'' ये टीकायें देवर्द्धिगणिके पहले बन करके तैयार हो चुकी थीं, या उसी समय वलभीमें ही तैयार हुई, यह मुनि जी और स्पष्ट कर देते तो पढ़नेवालोंको भ्रम पैदा न होता । अस्तु
अत: देवद्धिगणिकालीन वलभी सम्मेलनमें वाचना नहीं हुई, केवल पुस्तक लेखन हुआ, यह कथन निराधार है; क्योंकि इससे पूर्व हुई माथुरी वाचना और वालभी वाचनाके समय संकलित किये गये आगमसूत्रोंको लिपिबद्ध कर लेनेका कोई उल्लेख नहीं मिलता है और न यही उल्लेख मिलता है कि देवर्द्धिगणिके सम्मेलनमें सब आगमग्रन्थ लिखित रूपमें उपस्थित थे। प्रत्युत इसके विरुद्ध यही कथन मिलता है कि जिस प्रकार पहलेकी वाचनाओंमें दुर्भिक्षके कारण नष्टावशिष्ट श्रुतको साधुओंकी स्मृतिके आधार पर संकलित किया गया उसी तरह देवर्द्धि कालीन वलभी वाचनामें भी दुर्भिक्षके कारण विनष्ट हुए श्रुतकी रक्षाका प्रयत्न पूर्ववत् किया गया। किन्तु पहलेकी वाचनाओंसे इसमें एक विशेषता यह थी कि उस संकलित श्रुतको पुस्तकारूढ़ भी कर दिया गया। इससे पहले कोई आगम सूत्र लिखा ही नहीं गया, ऐसा हमारा आग्रह नहीं है, हो सकता है कि व्यक्तिगत रूपसे साधु लोग अपनी सुविधाके लिये किसी सूत्रग्रन्थको लिपिबद्ध कर लेते हों। किन्तु देवर्द्धिसे पहले सामूहिक रूपसे आगम ग्रन्थोंको लिपिवद्ध
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