Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ग्रप जैन धर्मको बौद्ध धर्मसे स्वतन्त्र धर्म मानता था। स्व० याकोवी दूसरे ग्रप के थे और उन्हींकी शोधोंके फलस्वरूप दूसरे
पकी मान्यताको बल मिला । प्रथम अपमें एक मि. बार्थ थे उन्होंने अपनी पुस्तक 'धर्मोंका इतिहास' में जैन धर्मके सम्बन्धमें यह तो स्वीकार किया था कि 'नाटपुत्त' के रूप में एक ऐतिहा. सिक व्यक्तित्व छिपा हुआ है। किन्तु उनकी आपत्ति यह थी कि उसके सम्बन्धमें जिन जैन आगमोंसे सबल तर्क उपस्थित किये जाते हैं वे ईसा की पाँचवीं शतीके हैं अथवा यह कहना चाहिये कि सम्प्रदायकी स्थापना होनेके लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् के हैं। उनका यह भी कहना था कि जैन परम्पराका निर्माण बौद्ध परम्पराकी नकल है। उन्हींको उत्तर देते हुए स्व. याकोवीने जैन आगमोंके संबन्धमें उक्त विचार प्रकट किये थे।
मुनिजीकी तरह उन्होंने भी प्रारंभमें ही यह स्पष्ट कर दिया है कि परम्परा कथन तो यही है कि जैन आगमोंका संकलन वलभीमें देवर्धिकी प्रधानतामें हुआ। किन्तु वह अपनी कल्पना
और तर्कके आधार पर उक्त परम्पराका उक्त अर्थ निकालते हैं। उक्त परम्पराकी आधारभूत प्राचीन गाथा' तो इतना ही १-विलहिपुरम्मि नयरे देवडिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थई अागमु लिहिलो नवसय असीअाश्रो वीराश्रो॥
-वी० नि० सं० जैनका०, पृष्ठ १०८ पर उद्धृत । दूसरा पाठ इस प्रकार है
वलहिपुरंमि नयरे देवडिढपमुहसयलसंघेहिं । पुव्वे आगमु लिहिउ नव सय असीवाणु वीराउ ।
-जै० सा० इ० (गु०) पृ० १४२ में उद्धृत ।
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