Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
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किन्तु अपने धर्म प्रन्थोंका उत्तराधिकार मौखिक रूपसे सौंनेकी प्रचलित प्रथाके प्रभाव से प्रभावित थे । किन्तु मैं यह नहीं मानता हूँ कि जैनोंके आगम मूलतः पुस्तकों में लिखे गये थे क्योंकि बौद्धोंके पुस्तक न रखनेके सम्बन्धमें जो युक्ति दी जाती है कि उनके पवित्र पिटकोंमें, जिनमें प्रत्येक छोटी से छोटी और महत्त्वहीन गाहस्थिक चीजों तकका उल्लेख मिलता है, पुस्तकोंका उल्लेख नहीं है, वही युक्ति जैनोंके सम्बन्ध में भी दी जा सकती है। कम से कम जब तक जैन साधु भ्रमणशील थे तब तक उनमें पुस्तकों की प्रवृत्ति नहीं थी । किन्तु जबसे जैन साधु अपने अपने उपाश्रयोंमें रहने लगे, वे अपनी पुस्तकें रख सकते थे जैसा कि
आजकल रखते हैं । इस तरह जैन आगमोंको लेकर देवर्द्धिगणिके सम्बन्धमें साधारणतया जो विश्वास किया जाता है उससे हमें एक भिन्न ही बात प्रतीत होती है । सम्भवतया उन्होंने मौजूदा प्रतियोंको एक आगम के रूपमें सुव्यवस्थित किया और जिनकी प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हुई उन्हें विद्वान् आगमज्ञोंके मुखसे गृहण किया । उस आगमकी बहुत सी प्रतियाँ प्रत्येक शिक्षालय में देनेके लिये तैयार कराई गई क्योंकि धार्मिक शिक्षण के ढंगमें नवीन परिवर्तन के कारण उनकी आवश्यकता थी । अतः देवर्द्धिके द्वारा सिद्धान्तोंका सम्पादन पवित्र पुस्तकोंका, जो पहले से ही लगभग उसी रूपमें मौजूद थीं, केवल नवीन संस्करण करना मात्र है ।" - से० वु० ई०, जि० २२, प्रस्तावना पृ० ३७-३६ ।
मान्य विद्वानके उक्त विचारोंके सम्बन्ध में दो शब्द कहने से पूर्व उसकी पृष्ठ भूमि बतला देना आवश्यक होगा । उस समय
यूरोपियन स्कालरों में दो प्रप थे । एक प जैन धर्मको स्वतन्त्र
धर्म न मानकर उसे बौद्ध धर्मकी शाखा मानता था और दूसरा
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