Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
५१५ बतलाती है कि वीर निर्वाणके १८० वें वर्ष में वलभी पुरी नगरीमें देवद्धि प्रमुख सकल संघने या श्रमण संघने पुस्तकों पर आगमको लिखा ? प्रश्न होता है कि क्यों लिखा तो प्राप्त उल्लेखों से प्रकट होता है कि दुर्भिक्षवश श्रुतकी रक्षा करनेके लिये लिखा। कैसे लिखा । तो पता चलता है कि उपस्थित श्रमण संघकी स्मृतिके आधार पर लिखा। और श्रमण संधकी स्मृति का आधार परम्परागत माथुरी वाचना थी। फिर भी जैसे यह कहना कि वलभीमें वाचना नहीं हुई और जो कुछ लिखा गया वह केवल प्राप्त पुस्तकोंके आधार पर हो लिखा गया, एकान्त पक्ष है वैसे ही यह कहना भी कि बलभी सम्मेलनसे पहले व्यक्तिगतरूपसे भी पुस्तकों पर आगम लिखा ही नहीं गया था
और वलभी सम्मेलन में ही पहले पहले आगमोंको लिखनेकी प्रथा प्रवर्तित हुई, एकन्तपक्ष है। सब बातोंको दृष्टिमें रखते हुए हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वलभीमें देवद्धि गणिकी प्रमुखतामें उपलब्ध साधनोंके आधार पर आगमोंको व्यवस्थित करके उन्हे पुस्तकारूढ़ कर दिया गया और तबसे सार्वजनिक रूपसे उनका लेखन कार्य होने लगा। डा. जेकावीका यह अर्थ कि पठन पाठनमें पुस्तकोंके उपयोगकी प्रवृत्तिको प्रसारित करनेके लिये देवद्धि ने आगमोंकी बहुत सी प्रतियाँ तैयार कराई, एक सुधारवादी दृष्टि से भले ही उचित लगे किन्तु शोधक दृष्टिसे तो उचित नहीं ही जंचता, अतः हम भारतीय साहित्यके इतिहासके लेखक डा० विन्टरनीट्सका इस सम्बन्धमें मत देते हैं-वह लिखते हैं___"आगमोंकी प्राचीनता और प्रामाणिकताके सम्बन्धमें स्वयं श्वेताम्बर जैनोंमें नीचे लिखी परम्परा पाई जाती है
'मूल सिद्धान्त चौदह पूर्वोमें सुरक्षित थे। महावीरने स्वयं
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