Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
५२३ करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई थी। उनमें से बहुतसे पाठान्तरों को पीछेके टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें उल्लिखित किया है। कुछ टीकाकारोंने केवल एक ही पाठको स्वीकार करके उसीको अपनी टीकाका आधार बनाया है। उदाहरणके रूपमें उत्तराध्ययन सूत्रके टीकाकार देवेन्द्र गणीको लिया जा सकता है। दूसरे कुछ टीकाकार पाठान्तरोंको देखनेकी इच्छावालोंको उसकी चूर्णीको देखनेको सूचना देते हैं । प्रमाणके रूपमें कल्पसूत्रके सबसे प्राचीन टीकाकार; जिनकी टोकाको प्राप्त करनेमें मैं सफल हुआ हूं, जिनप्रभमुनिको लिया जासकता है। इस लिये वर्तमान विवेचकोंका उद्देश्य तो प्राचीन टीकाकारोंने जो सूत्र पाठ स्वीकार किया था, केवल उसीका पुनरुद्धार करनेका होना चाहिये। साक्षात् देवद्धि गणिके द्वारा पुस्तकारूढ़ किया गया पाठ तो आज मिलना ही अशक्य' है।'
देवद्धि गणिके पश्चात् भी जैनसूत्रोंमें जो फेरफार वगैरह हुआ, वह ऊपरके उद्धरणसे स्पष्ट हैं । ___ श्री बेवरने अंगसाहित्यके विषयमें एक अध्ययनपूर्ण विस्तृत निबन्ध लिखा था, उसका अंग्रेजी अनुवाद इण्डियन एण्टिक्वेरीमें प्रकाशित हुआ था । डा० बेबर उस ग्रपके विद्वान थे जो जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा मानता था। अत: उनका मत भी यहाँ दे देना उचित है । उन्होंने लिखा है
'डा० बुहलर की सूचीमें अंकित ४५ आगमोंको देवर्द्धिगणिने संकलित किया था ऐसा डा० जेकोवीका विश्वास है (कल्प, पृ० ६.) यदि हम इस पर अब अधिक विचार न
१. यह अंश जैन साहित्य संशोधन भाग ५ में प्रकाशित गुजराती
अनुवाद के आधारसे दिया गया है. ले० ।
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