Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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५२२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उसके सम्पादक देवद्धि गणिकी आभारी है। उन्होंने ही उन्हें अध्यायों और अध्ययनोंमें विभक्त किया। और ग्रन्थ गणना ( ३२ अक्षरका एक श्लोक इस प्रकार श्लोक प्रमाण ) की पद्धति चालूकी। इस ग्रन्थ गणनाके अनुसार सौ सौ और हजार हजार श्लोकोंकी संस्या सूचक अंक हस्त लिखित प्रतियों में सर्वत्र एक ही रूपमें लिखे हुए हैं। मार्गको नापनेके लिये खड़े किये गपे मीलके पत्थरोंके समान इन संख्या सूचक अंकोको देनेका उद्देश्य यह था कि मूलसूत्रोंमें पुनः घटा बढ़ी न हो सके । परन्तु वास्तवमें यह उद्देश्य सफल हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। देवर्द्धि गणिके पश्चात् जैन आगमोंमें बहुत फेरफार हुआ प्रतीत होता है। आधुनिक हस्तलिखित प्रतियोंमें अनेक पाठान्तर तो मिलते ही हैं, किन्तु जुदी २ लेखन पद्धतिके कारण उन पाठान्तरोंकी उत्पत्ति हुई है। इसके सिवाय वे पाठान्तर बहुत उपयोगी अथवा बहुत प्रामाणिक भी नहीं हैं। किन्तु पुराने समयमें कुछ जुदी हा स्थिति होनी चाहिये । क्योंकि टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें अनेक पाठान्तरों का निर्देश किया है, जो हालकी हस्तलिखित प्रतियोंमें नहीं पाये जाते। इससे हमारा मत है कि वर्तमान में जो सूत्रपाठ मूल प्रतियोंमें पाया जाता है तथा अर्वाचीन टीकाकारोंने जिसे अपनी टीकाओंमें लिखा है वह टीकाकारोंके द्वारा निर्णीत किया गया पाठ है। कल्पसूत्रके सम्बन्धमें तो यह बात निश्चित है। यह मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ। सूत्रोंकी जो जो टीकायें आज विद्यमान हैं वे सब सीधे या परम्परा रूपसे प्राकृत भाषामें रची प्राचीन चूर्णियों अथवा वृत्तिओंके आधार पर लिखी गई हैं । ये चूर्णियाँ तथा वृत्तियाँ या तो नष्ट हो गई हैं अथवा कहीं मौजूद हैं। प्राचीन टीकाकारोंने मूलसूत्रोंको बहुत अधिक अव्यवस्थित रूपमें पाया था ; क्योंकि उन्हें उनके बहुतसे पाठान्तरोंको नोट
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