Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
५१६ वर्ष पश्चात् वलभीमें जो पुस्तकारूढ़ किया गया उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ा, या मामूलीसा अन्तर पड़ा, पूर्ण सत्य नहीं है। भागभोंके विशिष्ट अभ्यासी पं० वेचर दास जीका तो यह कहना है कि वल्भीमें संगृहीत अंग साहित्यकी स्थितिके साथ श्री वीरसमयके अंग साहित्यकी तुलना करने वालेको दो सौतेले भाईयोंके बीच जिनता अन्तर होता है उतना भेद मालूम होना सर्वथा संभव है"-जै० सा० वि० पृ० २३ । ___ इसके विषयमें वास्तविक स्थितिका पता तो तभी लग सकता था जब वीर भगवानके समयमें गणधरके द्वारा ग्रथित हुआ अंग साहित्य उपलब्ध होता और उसके साथ वर्तमान अंग साहित्यकी तुलनाकी जाती, किन्तु यदि वैसा होता तो दुसरा रूप सामने ही क्यों आता । फिर भी सब घटनाओंको दृष्टिमें रखकर वस्तु स्थितिका विचार करने पर पं० वेचर दासजीकी उक्ति ही सत्यके अधिक निकट प्रतीत होती है। ___ भारतके धार्मिक साहित्यकी रूपरेखाका चित्रण करते हुये श्री जे एन फरक्यूहर (J. N.FARQUHAR) ने जैन आगमोंके सम्बन्धमें लिखा है-"अङ्गोंके द्वारा स्पापित समस्या बहुत ही जटिल स्थितिमें है। उनकी भाषा मूल मागधी नहीं है जिसमें वह ईस्वी पूर्व तीसरी शतीमें पटनामें संकलित किए गये थे। किन्तु उसपर पश्चिम का, जहां वह ईस्वी सन् की पांचवीं शतीमें लिखे गये, प्रभाव है। इस बातके स्पष्ट प्रमाण हैं कि संकलन कालसे ही उनमें विस्तृत रूपमें परिवर्तन होते आये हैं। इस सबसे जटिल समस्याको सुलझानेके लिये आगमोंका तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया। यह संभव है कि पटनामें कुछ अंग संकलित किये गये। किन्तु
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