Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
श्रुतावतार
५०७ भद्रकृत और मलयगिरिकृत' नन्दि टीकामें भी यही लिखा हुआ है। ___ मलयगिरिकी ज्योतिष्करण्डकटीकामें भी, जिसमें मथुरा
और वलभीमें वाचना होनेका निर्देश है, दोनों वाचनाओंमें सूत्रार्थ संघटन होनेका ही उल्लेख है, लिपिवद्ध किये जानेका नहीं । भद्रेश्वर की कथावलीमें भी इसका निर्देश नहीं है। किन्तु मुनिजीने उसका अर्थ इस प्रकारसे किया है जिससे यह प्रतीत हो सकता है कि मायुरी वाचनाके पहले भी आगम पुस्तकें थीं। कथावली में केवल इतना वाक्य है-'जाव सज्झायंती ताव खंडु खुरुडीहूयं पुव्वाहियं' । अर्थात् सुभितके पश्चात् जब वे साधु पुनः मिले और स्वाध्याय करने लगे तो उन्हें प्रतीत हुआ कि पहले का सब अभ्यस्त अस्तव्यस्त हो गया है-भूल गया है। मुनिजी ने अर्थ किया है --'सुभिक्षके समयमें फिर वे इकट्ठे हुए
और अभ्यस्त शास्त्रोंका परावर्तन करने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि प्रायः वे पढ़े हुए शास्त्रोंको भूल चुके हैं।' अतः भद्रेश्वरके उल्लेखमें संकलित शास्त्रोंको लिख लेनेकी बात नहीं है। भद्रेश्वरने आगे लिखा है कि 'टीकाकारोंने 'नागज्जुणीया उण एवं पढ़न्ति' इस प्रकारसे वाचना भेदोंका उल्लेख आचारांग आदि में कर दिया।' यह लिखते समय भद्रेश्वरके सामने आचारांग आदि की टीकाएँ थीं, यह स्पष्ट है; क्योंकि भद्रेश्वर नवांगवृत्तिकार शीलांकसूरिके पश्चात् हुए है और उनकी टीकाओंमें 'नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' आदि उल्लेख मिलते हैं । मुनि जीने भी अपनी पुस्तककी ( पृ० ११६)
च
१–'यो यस्मरति स तत्कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वगतं किंचिदनुसन्धाय घटितम्"-नन्दि० गा० ३३ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org