Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
श्रुतावतार
५०५ की माथुरी वाचनाके अनुसार सब सिद्धान्त लिखे गये । जहाँ जहां नागाजुनी वाचनाका मतभेद और पाठ भेद था वह टीकामें लिख दिया गया पर जिन पाठान्तरोंको नागार्जुनानयायी किसी तरह छोड़नेको तैयार न थे उनका मूलसूत्र में भी वायणंतरे पुण' इन शब्दोंके साथ उल्लेखकर दिया।' ( वी० नि० जै० का० पृ० ११५ -११७) ___ मुनिजीके उक्त कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। यदि सब सिद्धान्त माथुरी वाचनाके अनुसार लिखे गये और जहां जहां नागार्जुनी वाचनाका पाठ भेद या मतभेद था वह टीकामें लिख दिया गया तो फिर दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका परस्पर समन्वय करने और भेदभाव मिटाकर एक रूप करनेकी बात नहीं रहती। और यदि उक्त प्रकारसे समन्वय किया गया तो यह नहीं कहा जा सकता कि सब सिद्धान्त माथुरी वाचनाके अनुसार लिखे गये। दोनों वाचनाओंका समन्वय करके और भेद भाव मिटाकर जो वस्तु तैयार की गई उसे उभयवाचनानुगत कहना होगा न कि किसी एक वाचनानुगत ।
उदाहरणके लिये आजकल अनेक प्रतियों को सामने रखकर किसी एक ग्रन्थका सम्पादन कार्य किया जाता है। उसमें श्राधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार एक प्रतिको आदर्श मानकर उसे मूल ग्रन्थका रूप देते हैं और अन्य प्रतियों के पाठान्तरोंका निर्देश टिप्पणमें कर देते हैं। कुछ सम्पादक ऐसा भी करते हैं कि उन्हें जहाँ जिस प्रतिका जो पाठ शुद्ध प्रतीत होता है वहाँ वह पाठ मूल में दे देते हैं और इस तरह सब प्रतिओंके आधार से अपने मूल ग्रन्थका रूप देते हैं। इस रूपको किसी एक प्रतिका अनुसारी नहीं कहा जा सकता। उसे तो सबका समन्वित रूप
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org